Book Title: Jain Vidya 10 11
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 90
________________ जैनविद्या " किं च यदि व्यवहारेण परद्रव्यं जानाति तर्हि निश्चयेन सर्वज्ञो न भवतीति पूर्वपक्षे परिहारमाह-यथा स्वकीय सुखादिकं तन्मयो भूत्वा जानाति तथा बहिर्द्रव्यं न जानाति तेन कारणेन व्यवहारः । " ( स. सा./ता. वृ. 356-365 ) । 76 अर्थात् 'यदि केवली व्यवहारनय से परद्रव्य को जानते हैं तो वे निश्चयनय से सर्वज्ञ नहीं है' इस प्रश्न का समाधान यह है कि जिस प्रकार वे अपने सुखादि को तन्मय होकर जानते हैं उस प्रकार परद्रव्य को परद्रव्यमय होकर नहीं जानते इसलिए उन्हें व्यवहारनय से सर्वज्ञ कहा गया है । श्री ब्रह्मदेव सूरि ने परमात्मप्रकाश ( 1.52 ) की टीका में इसका और अधिक खुलासा इस प्रकार किया है " कश्चिदाह - यदि व्यवहारेण लोकालोकं जानाति तर्हि व्यवहारनयेन सर्वज्ञत्वं न निश्चयनयेनेति । परिहारमाहयथा स्वकीयमात्मानं तन्मयत्वेन जानाति तथा परद्रव्यं तन्मयत्वेन न जानाति तेन कारणेन व्यवहारो भण्यते, न च परिज्ञानाभावात् । यदि पुनर्निश्चयेन स्वद्रव्यवत्तन्मयो भूत्वा परद्रव्यं जानाति तर्हि परकीय सुखदुःख रागद्वेषपरिज्ञातो सुखी दुःखी रागी द्वेषी च स्यादिति महदूदूषणं प्राप्नोतीति । " अर्थात् कोई कहे कि यदि केवलज्ञानी आत्मा व्यवहार से लोकालोक को जानता है। तो वह व्यवहारनय से सर्वज्ञ है, निश्चयनय से नहीं, इसका समाधान यह है कि केवलज्ञानी आत्मा जिस प्रकार स्वकीय ग्रात्मा को तन्मय होकर जानता है उस प्रकार परद्रव्य को परद्रव्यमय होकर नहीं जानता, इसलिए व्यवहार से सर्वज्ञ कहलाता है, न जानने के कारण नहीं । क्योंकि यदि निश्चयनय से अर्थात् स्वात्मा के समान परद्रव्य को भी परद्रव्यमय होकर जाने तो परकीय सुख, दुःख, राग, द्वेष आदि का ज्ञान होने पर उसे सुख, दुःख, राग, द्वेष आदि के अनुभव होने का प्रसंग उपस्थित होगा । अतः निश्चयनय से सर्वज्ञत्व मानने महान् दोष है । इन व्याख्याओं से स्पष्ट हो जाता है कि यहाँ 'व्यवहार' शब्द सर्वज्ञत्व की यथार्थता का सूचक न होकर परद्रव्यों के साथ ज्ञेयज्ञायक सम्बन्ध की अपरमार्थता ( अतादात्म्यरूपता) का सूचक है । इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि भिन्न वस्तुसम्बन्धविषयक प्रसद्भूतव्यवहारनय सर्वथा उपचारात्मक ही नहीं होता, यथार्थनिरूपक भी होता है । निम्नलिखित गाथा में प्राचार्य कुन्दकुन्द ने जीवपरिणाम और पुद्गलपरिणाम में परस्पर निमित्तनैमित्तिकभाव बतलाया है जोवपरिणामहेदु कम्मत्तं पुग्गला परिणमति । पुग्गलकम्मरिणमित्तं तहेव जीवो वि परिरणमइ ।। 80 ॥ स. सा.

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