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जनविद्या
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सुगइगमरण, समाहिमरणं, जिणगुणसम्पत्ति होउ मज्झ33 ।' इसका अर्थ है कि दुःखों का क्षय करनेवाला, कर्मों को नष्ट करनेवाला, ज्ञान-प्रदाता, सुगति देनेवाला जिनगुणसम्पत्तिरूप समाधिमरण मुझे प्राप्त हो । निष्कर्ष है कि अनगारों की यदि कृपा हो और वे वरदान दें तो यह समाधिमरणरूपी धन मिल सकता है ।
साधु के लिए समाधिमरण एक अनिवार्य तत्त्व है। साधु को समाधिमरण भी सौभाग्य से ही मिलता है।
प्राचार्यकुन्दकुन्द तीर्थ-क्षेत्रों के परम भक्त थे । उन्होंने 'निर्वाणभक्ति' में लिखा हैइस मर्त्यलोक में जितने भी पंचकल्याणों से सम्बन्धित स्थान हैं, मैं उन सब को मनवचन-काय की शुद्धि से सिर झुका कर नमस्कार करता हूँ । यहाँ तक ही नहीं, उन्होंने सातिशय तीर्थक्षेत्रों को भी पूज्य माना है ।
उनका कथन है-"अष्टापद-कैलाश पर्वत से वृषभनाथ, चंपापुर से वासुपूज्य, उर्जयन्त से नेमिनाथ, पावापुर से महावीर और अवशिष्ट 20 तीर्थकर सम्मेदशिखर से मोक्ष गये, उन सभी को हमारा नमस्कार हो ।
1. भावपाहुड, 149 । 2. भावपाहुड, 152 । 3. समयसार, सम्पादक, पं० परमेष्ठीदास, गाथा 10 । 4. आचार्य कुन्दकुन्द, श्रुतिभक्ति-11 । 5. दशभक्ति, शोलापुर, 1921 ई०, पृ-126 । 6. समयसार, 4151 7. . भावपाहुड, 1491
मोक्षपाहुड, 104। 9. मोक्षपाहुड, 61 10. प्राकृत पंचगुरुभक्ति, 7 । 11. भावपाहुड, 791 12. तत्वार्थसूत्र, मथुरा, 6.24, पृष्ठ 153 । 13. पं० आशाधर, जिनसहस्रनाम, 9.46, स्वोपज्ञवृत्ति, पृ० 78 । 14. धनंजय नाममाला, 126वें श्लोक का भाष्य । 15. पं० आशाधर, जिनसहस्रनाम, श्रुतसागरीय टीका, 4.48, पृ० 165 । 16. योगीन्दु, परमात्मप्रकाश, ब्रह्मदेव की टीकासहित, 1.95, पृ० 98 । 17. दशभक्ति, कुन्दकुन्द, शोलापुर, 1931 ई०, सिद्धभक्ति, पृ० 66 । 18. वही, पृष्ठ 58 ।