Book Title: Jain Vidya 10 11
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 127
________________ समयसार की रचना में आचार्य कुन्दकुन्द की दृष्टि -पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य 1-समयसार का पालोडन करने से मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि उसकी रचना प्राचार्य कुन्दकुन्द ने इस दृष्टि से की है कि सम्पूर्ण मानवसमष्टि उसे पढ़कर उसके 'अभिप्राय' को समझे और उस अभिप्राय के अनुसार अपनी जीवन-प्रवृत्तियों को नैतिकरूप देने का दृढ़ संकल्प करे जिससे वह जीवन के अंत तक सुखपूर्वक जिन्दा रह सके । 2-इस प्रकार अपनी जीवन-प्रवृत्तियों को नैतिकरूप देनेवाली मानवसमष्टि में से जो मानव जितने परिमाण में अपनी मानसिक, वाचनिक और कायिक स्वावलम्बनता का अपने में विकास करले उसके अनुसार वही आध्यात्मिक (प्रात्मस्वातन्त्र्य के) मार्ग का पथिक बन सकता है। जीवों के प्रकार जैनशासन में जीवों के संसारी और मुक्त ये दो प्रकार बतलाये गये हैं । 'संसारिणो मुक्ताश्च' (त. सू. 2.10)। इस सूत्र से यह भी ज्ञात होता है कि संसार की समाप्ति का नाम मुक्ति है । जो जीव संसार से मुक्त हो जाते हैं वे ही सिद्ध कहलाते हैं। जैन शासन के अनुसार कोई भी जीव अनादिसिद्ध नहीं है । जैसा कि अजैन दार्शनिकों ने माना है । संसारी जीवों के भेद जैनशासन के अनुसार संसारी जीव भव्य और अभव्य दो प्रकार के हैं। उनमें से भव्य जीव वे हैं जिनमें संसार से मुक्त होने की स्वभाव-सिद्ध योग्यता विद्यमान हो और

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