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जनविद्या
अभव्य जीव वे हैं जिनमें उस स्वभाव-सिद्ध योग्यता का सर्वथा अभाव हो।
भव्य और प्रभव्य जीवों में विद्यमान समानता
भव्य और अभव्य दोनों ही प्रकार के जीव पौद्गलिक कर्मों से बद्ध होने के कारण उन कर्मों के प्रभाव से अनादिकाल से यथायोग्य नरक, तियंच, मनुष्य और देव इन चार गतियों में परिभ्रमण करते आये हैं और अपनी स्वावलम्बन शक्ति को नष्टकर यथासम्भव मानसिक, वाचनिक और कायिक परावलम्बनता की स्थिति में रहते आये हैं तथा मिथ्यात्व
और अनन्तानुबन्धी कषाय के प्रभाव में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में रहते हुए सतत यथायोग्य मन, वचन, और काय के अवलम्बन पर मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञान पूर्वक अनैतिक (मिथ्या) आचरण करते आये हैं । ऐसे जीवों को समयसार गाथा 19 से लेकर गाथा 23 तक अपने से भिन्न पदार्थ में अहंबुद्धि और ममबुद्धि होने के कारण अप्रतिबुद्ध प्रतिपादित किया गया है । वे जीव अप्रतिबुद्ध क्यों है ? इस बात को समयसार गाथा 24 और 25 में आगम और तर्क के आधार पर सिद्ध किया गया है।
समयसार में मनुष्यगति की अपेक्षा विवेचन
यद्यपि नरक, तिर्यच, मनुष्य और देव इन सभी गतियों के जीव उक्त प्रकार से अप्रतिबुद्ध हो रहे हैं और सभी गतियों के बहुत से जीव इस अप्रतिबुद्धता को समाप्त कर प्रतिबुद्ध भी हो सकते हैं, परन्तु जीवों को मुक्ति की प्राप्ति मनुष्य गति से ही हो सकती है इसलिए समयसार में जो विवेचन किया गया है उसे मानवसमष्टि की अपेक्षा ही समझना चाहिए। भव्य और प्रभव्य जीवों में विद्यमान अन्तर
जैनशासन के अनुसार भव्य और अभव्य दोनों ही प्रकार के मिथ्यादृष्टि जीव मुक्ति के मार्ग में प्रवेश कर सकते हैं क्योंकि न तो भव्य जीव अपनी भव्यता की पहिचान कर सकते हैं और न अभव्य जीव अपनी अभव्यता की। इसलिए भव्य जीवों के समान अभव्य जीव भी अपने को भव्य समझकर मुक्ति के मार्ग में प्रवृत्त होते हैं । समयसार गाथा 275 में बतलाया गया है कि अभव्य जीव भी भव्य जीव के समान मोक्ष के मार्गभूत धर्म (व्यवहारधर्म) में आस्था रखता है, उसको समझता है, उसमें रुचि रखता है और उसमें प्रवृत्त भी होता है । इतनी बात अवश्य है कि उसका वह धर्माचरण मुक्ति का कारण न होकर यथायोग्य सांसारिक सुख की वृद्धि का ही कारण होता है । समयसार में वह गाथा इस रूप में निबद्ध है
सद्दहदि य पत्तियदि य रोचेदि य तह पुणो वि फासेदि य ।
धम्मं भोगणिमित्तं रण हु सो कम्मक्खयरिणमित्तं ॥ 275 ॥ इसका तात्पर्य यह है कि यद्यपि भव्य और अभव्य दोनों ही प्रकार के जीव मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी कषाय के प्रभाव से मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में रहते हुए