Book Title: Jain Vidya 10 11
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 133
________________ समयसार में निश्चय-व्यवहार-विषयक चर्चा-समाधान -नाथूराम डोंगरीय धर्मबंधुनों में प्राय: निश्चय-व्यवहार पर आधारित तत्त्वचर्चा हुमा करती है । जिज्ञासा एवं निष्पक्षभाव से की गई. तत्त्वचर्चा बस्तुस्वरूप के समझने में सहायक ही हुआ करती है । इस तत्त्वचर्चा में हमें जैनदर्शन के मूल सिद्धांत अनेकांत का ध्यान रखना और नय-विषयक ज्ञान का होना आवश्यक एवं अनिवार्य है। इसके बिना केवल अपने-अपने अभिप्रायों की पुष्टि हेतु खींचतान करने से वह विवाद का रूप भी धारण कर लेती है जिससे सम्यग्ज्ञान के होने में निश्चितरूप से बाधा आती है। यहाँ जिनवाणी के प्राण अनेकांत की प्रतिष्ठा हेतु निश्चय-व्यवहार नयों एवं उनके द्वारा प्रतिपादित वस्तु एवं प्रात्म-स्वरूप पर संक्षेप में प्रकाश डाला जा रहा है जिससे धर्मबंधुनों को उक्त विषयक चर्चाओं में यदि वे निष्पक्ष होकर विचार-विनिमय करेंगे तो अवश्य ही समाधान प्राप्त हो सकेगा, ऐसी आशा है। वस्तु का स्वरूप-जिनवाणी के अनुसार वस्तु का स्वरूप अनेकांतात्मक है अतः जैनाचार्यों ने उसे विविध दृष्टियों से समझाया है। ये रष्टियाँ ही हमें वस्तु का स्वरूप समझने में सहायक होती हैं। इन दृष्टियों को जैनाचार्यों ने नय संज्ञा प्रदान की है। प्रामाणिक रूप में प्रत्येक वस्तु द्रव्य-गुण-पर्यायात्मक है । प्रत्येक द्रव्य अपने प्रदेशों में सदा स्थिर रहता हुअा स्वयं के सहभावी गुणों का प्रखंड पिंड होता है। दूसरे शब्दों में गुणों का अखंड पिंड ही द्रव्य कहलाता है। द्रव्य के सदा स्थिर रहते हुए भी उसकी परिणमनात्मकता के कारण परिणमन (परिवर्तन) भी होता रहता है जिसे पर्यायों का

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