Book Title: Jain Vidya 10 11
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 136
________________ जैन विद्या नहीं होतीं । द्रव्य और पर्याय में यदि कथंचित् कथनात्मक भेद सा प्रतीत होता भी है तो वह केवल द्रव्य का पर्यायात्मक स्वरूप जताने के लिए ही समझा जाना चाहिये । 'द्रव्य की पर्याय' ऐसा भेदरूप कथन करने पर पाठकों को यह भय हो जाता है कि द्रव्य से पर्याय कोई भिन्न वस्तु है और इसलिए द्रव्य तो सदा शुद्ध ही रहता है, अशुद्धि केवल पर्यायों में ही हुआ करती है, किंतु यह नहीं भूलना चाहिए कि द्रव्य जिस समय जिस पर्यायरूप परिणत होता है उस समय वह तन्मय ही होता है क्योंकि उस पर्याय से उस द्रव्य (आत्मा) का तादात्म्य सम्बन्ध है । इसका प्रवचनसार में प्राचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने- " परिणमदि जेण दव्वं तक्काले तण्मयत्ति रिद्दिट्ठ" आदि गाथा द्वारा स्पष्टीकरण किया ही है । इसके सिवाय प्रवचनसार ही में इस कथन की पुष्टि उन्होंने निम्न गाथा में भी की है 122 उप्पादट्टिदिभंगा विज्जंते पज्जएसु पज्जाया । दव्वं हि संति रियदं तम्हा दव्वं हवदि सव्वं ॥ 101 ॥ अर्थात् पर्यायों में उत्पाद, स्थिति, और विनाश तीनों ही विद्यमान हैं और पर्यायें द्रव्य में रहती हैं, उससे पृथक् उनका अस्तित्व नहीं क्योंकि सब द्रव्य की ही हैं, इस कारण निश्चय से वे उत्पाद - व्यय - ध्रौव्यमयी पर्यायें द्रव्य ही हैं । इस कथन की पुष्टि स्वामी समंतभद्र द्वारा ( प्राप्तमीमांसा में ) निम्न शब्दों में की गई है— तयोरव्यतिरेकतः । द्रव्यपर्याययोरैक्यं परिणामविशेषाच्च शक्तिमच्छक्तिभावतः ॥ अर्थात् द्रव्य और पर्याय में एकता इसीलिए है कि वे दोनों भिन्न-भिन्न न होकर एक. हैं । पर्याय द्रव्य का परिणाम ( परिणति ) या परिणमनविशेष ही तो है- द्रव्य शक्तिमान् है और पर्याय द्रव्य की शक्ति की अभिव्यक्ति है । आचार्यों का उक्त कथन द्रव्य और पर्याय के सम्बन्ध में सम्पूर्ण भ्रमों और कल्पनाओं के निवारण करने के लिए पर्याप्त है । जैसे समुद्र के जल में उठनेवाली तरंगें जल से भिन्न न होकर जल ही है वैसे ही द्रव्य में तरंगों के समान उत्पन्न होनेवाली पर्यायें भी द्रव्य ही हैं । अतः शुद्धपर्याययुक्त ग्रात्मद्रव्य को सर्वथा अशुद्ध न मानना एक प्रकार का एकांत मिथ्यात्व ही कहा जायेगा। दूसरे यह कि द्रव्य से पर्याय को सर्वथा भिन्न मानने पर पर्याय को एक स्वतंत्र वस्तु मानना पड़ेगा तब ही आत्म- द्रव्य तथाकथित सर्वथा शुद्ध बना रह सकेगा और अशुद्धि फिर पर्यायों में होती रहेगी, जो कि प्रत्यक्ष से ही विरुद्ध है और आगम से भी विपरीत है जबकि आत्मा से उसकी कोई भी पर्याय न तो भिन्न है और न हो सकती है, न पर्याय से आत्मा ही भिन्न हो सकता है । श्रात्मद्रव्य किसी न किसी पर्याय में ही उपलब्ध होगा । इसीलिए 'गुणपर्ययवद्द्रव्यं' सूत्रकार ने घोषित किया है ।

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