Book Title: Jain Vidya 10 11
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 130
________________ 116 जनविद्या इस विवेचन से निर्णीत होता है कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती भव्य जीवों को ही उपर्युक्त क्रम से भेदविज्ञान की प्राप्ति होती है, अभव्य जीवों को नहीं । समयसार की बेजोड़ व्याख्या करनेवाले प्राचार्य अमृतचन्द्र के कलशपद्य 128, 129, 130, 131 और 132 से यही निर्णीत होता है कि प्राचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार की रचना में मुमुक्षु जीव के लिए मुक्ति की प्राप्ति में भेदविज्ञान को प्रमुख स्थान दिया है । यहाँ उन पद्यों को उद्धृत किया जाता है निजमहिमरतानां भेदविज्ञानशक्त्या भवति नियतमेषां शुद्धतत्वोपलम्भः । प्रचलितमखिलान्यद्रव्यदूरे स्थितानां भवति सति च तस्मिन्नक्षयः कर्ममोक्षः ॥ 128॥ -जो जीव निजमहिमा में रत हैं अर्थात् उसकी महिमा के जानकार हैं (भेदविज्ञानी हो गये हैं) उन जीवों को उस भेदविज्ञान के आधार पर नियम से अपने शुद्ध अर्थात् स्वतन्त्र स्वरूप का उपलम्भ (ज्ञान) होता है। ऐसे जीवों को अन्य द्रव्यों से सर्वथा दूर हो जाने पर अर्थात् पर पदार्थों में अहंबुद्धि और ममबुद्धि की समाप्ति हो जाने पर कर्मों का स्थायी क्षय होता है। सम्पद्यते संवर एष साक्षाच्छद्धात्मतत्त्वस्य किलोपलम्भात् । स भेदविज्ञानात एव तस्मात् तभेदविज्ञानमतीव भाव्यम् ॥ 129॥ -शुद्ध आत्मतत्त्व का ज्ञान हो जाने पर साक्षात् संवर का संपादन होता है। वह शुद्ध आत्मतत्त्व का ज्ञान भेदविज्ञान के आधार पर होता है। इसलिए जीवों को भेदविज्ञान की प्राप्ति का अभ्यास करना चाहिए । भावयेद् भेदविज्ञानमिदमच्छिन्नधारया । तावद्यावत्पराच्च्युत्वा ज्ञानं ज्ञाने प्रतिष्ठते ॥ 130 ॥ -उस भेदविज्ञान का अविच्छिन्न धारा से तब तक अभ्यास करना चाहिए जब तक वह जीव पर से च्युत होकर अर्थात् पर में अहंकार और ममकार समाप्त करके ज्ञान में प्रतिष्ठित होता है अर्थात् भेदविज्ञानी होता है । भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन । अस्यैवाभावतो बद्धाबद्धा ये किल केचन ।। 131 ॥

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