Book Title: Jain Vidya 10 11
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 122
________________ 108 जैन विद्या शिष्य के प्रश्न का समाधान नय विभाग (स्याद्वादसरणि) से देते हैं । इससे उनकी दार्शनिकता स्पष्ट विदित होती है। इसके सिवाय एक महत्त्वपूर्ण बात वे और कहते हैं29 कि जीव में कर्म बंधे हुए हैं और नहीं बंधे हुए हैं, ये दोनों एक-एक पक्ष (नयदृष्टि) हैं । किन्तु जो इन दोनों पक्षों से अतीत (रहित) है वही समयसार (शुद्ध आत्मतत्त्व) है । 8. कुन्दकुन्द भेदविज्ञान की सिद्धि करते हुए कहते हैं30 कि उपयोग में उपयोग है, क्रोधादिक में उपयोग नहीं है, वास्तव में क्रोध में ही क्रोध है, उपयोग में क्रोध नहीं है, आठ प्रकार के कर्मों में तथा शरीर आदि नोकर्मों में भी उपयोग नहीं है और उपयोग में कर्म तथा नोकर्म भी नहीं हैं । जिस काल में ऐसा यथार्थ ज्ञान होता है उस काल में उपयोगस्वरूप शुद्ध आत्मा उपयोग के सिवाय अन्य कुछ भी भाव नहीं करता । ऐसा भेदविज्ञान ही अभिनन्दनीय है और इस भेदविज्ञान से ही उसी प्रकार शुद्ध प्रात्मा की उपलब्धि होती है जिस प्रकार अग्नि से तपा हुआ सोना भी अपने स्वर्णस्वभाव को नहीं छोड़ता, ज्ञानी जीव भी कर्मोदय से तप्त होने पर भी अपने ज्ञानस्वभाव को नहीं छोड़ता । सच तो यह है कि जीव शुद्ध को जानेगा तो शुद्ध की ही उपलब्धि होगी और यदि वह अशुद्ध को जानता है तो उसे अशुद्ध आत्मा की ही प्राप्ति होगी । यह और आगे जितना और जो भी . कुन्दकुन्द का चिन्तन है वह सब दर्शन है, दर्शनशास्त्र है । 9. शिष्य प्रश्न करता है कि बन्ध कैसे टूटता है ? कुन्दकुन्द उसका उत्तर देते हुए कहते हैं31 कि बन्ध न तो उसके स्वरूपज्ञान से टूटता है और न उसकी चिन्ता करने से वह नष्ट होता है अपितु जैसे बन्धन में बंधा हुआ पुरुष उस बन्धन को तोड़कर ही मुक्त होता है उसी प्रकार जीव भी कर्म के बन्धन को छेदकर ही मुक्ति प्राप्त करता है । यहाँ उन्होंने पुरुषार्थ (चारित्र) पर पूरा बल दिया है। ___10. आत्मा के कर्तृत्व को लेकर श्रमणों में जो अनेक मत प्रचलित थे उन सबकी समालोचना कुन्दकुन्द ने गाथा 321, 322 और 323 में की है और कहा है कि लोक और श्रमणों के कथन में क्या भेद रहेगा ? लोक विष्णु को कर्ता मानते हैं और श्रमण आत्मा को । इस प्रकार दोनों को ही मोक्ष सम्भव नहीं । कर्म में कर्तृत्व मानने पर सांख्यमत के प्रसंग का दोष देकर सांख्य मत को भी उन्होंने प्रदर्शित किया है ।32 कहा है"तेसिं पयडी कुव्वइ अप्पा य अकारया सव्वे ।"-'प्रकृतिः की पुरुषस्तु अकर्ता'-प्रकृति की है और पुरुष (आत्मा) अकर्ता है । कई मतों का और भी कुन्दकुन्द ने दिग्दर्शन किया है । इसी प्रकरण में वे पुनः सांख्य मत को दिखाते हुए कहते हैं जो करता है वह वेदन नहीं करता-भोगता नहीं है । क्षणिकवादी बौद्धों का भी वे मत देते हैं34 'अन्य (क्षण) करता है और अन्य (क्षण) भोगता है ।' ऐसे लोगों को क्या कहा जाय ! उन्हें सत्य के परे ही जानना चाहिए। इस प्रकार समयसार में जहाँ एक अध्यात्म-पृष्ठ है वहाँ हम दूसरा दार्शनिक पृष्ठ भी देखते हैं । वस्तुतः बिना दर्शन के अध्यात्म को न समझा जा सकता है और न उसे प्राप्त किया जा सकता है । कुन्दकुन्द का चिन्तन समयसार में इतना गाढ़ा हो गया है कि

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