Book Title: Jain Vidya 10 11
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 119
________________ जैनविद्या 105 उन्हें इस ग्रन्थ को 'समयसार' कहने और उसकी महिमा गाने में अपरिमित आनन्द प्राता है । आगे भी उन्होंने गाथाओं पर रचे कलशों और उनकी व्याख्या में 'समयसार' नाम का ही निर्देश किया है ।10 प्राचार्य अमृतचन्द्र के बाद तो आचार्य जयसेन ने भी अपनी 'तात्पर्यवृत्ति' (व्याख्या) में 'समयसार' नाम ही दिया है और 'प्रामृत' का अर्थ 'सार' करके उससे उन्होंने 'शुद्धावस्था' का ग्रहण किया है ।12 पं. बनारसीदास, पं. जयचन्द आदि हिन्दी-टीकाकारों ने भी 'समयसार' नाम को ही ज्यादा अपनाया है । यह नाम इतना लोकप्रिय हुआ कि आज भी जन-जन के कण्ठ पर यही नाम विद्यमान है 'समयपाहुड' नाम कम, किन्तु ग्रन्थ का मूल नाम 'समयपाहुड' ही है जो ग्रन्थकर्ता आचार्य कुन्दकुन्द को अतिशय अभीष्ट है। समयसार में दार्शनिक दृष्टि समयपाहुड अथवा समयसार मूलतः आध्यात्मिक कृति है । इसमें प्राचार्य कुन्दकुन्द ने प्रारम्भ से लेकर अन्त तक शुद्ध प्रात्मा का ही प्रतिपादन किया है और उसी का श्रद्धान, उसी का ज्ञान और उसी को प्राप्त कर उसी में स्थिर होने-रमने पर पूरा बल दिया है ।13 यही कारण है कि उन्होंने मंगलाचरण में भी अरहन्तों को नमस्कार न करके पूर्ण शुद्ध अबद्ध और प्रबुद्ध समस्त सिद्धों की वन्दना की है ।14 शुद्ध आत्मा को उन्होंने दर्शन के द्वारा प्रदर्शित किया है । दर्शन का प्रयोजन है किसी भी वस्तु की सिद्धि प्रमाण से करना । कुन्दकुन्द ने उस एकत्व-विभक्त शुद्धात्म-तत्त्व की सिद्धि स्पष्टत या स्वविभव (युक्ति, अनुभव और आगम से प्राप्त ज्ञान) द्वारा करने की घोषणा की है ।15 स्वविभव को स्पष्ट करते हुए व्याख्याकारों ने कहा है16 कि कुन्दकुन्द का वह विभव आगम, तर्क, परमगुरूपदेश और स्वसंवेदन प्रत्यक्ष है । इनके द्वारा ही उस शुद्ध प्रात्मा को इस समयसार में सिद्ध किया गया है। आत्माद्वैतवादी उपनिषदों एवं वेदान्त दर्शन में भी आत्मा को सुनने के लिए श्रुतिवाक्यों, मनन (अनुमान) करने के लिए उपपत्तियों (युक्तियों) और स्वयं अनुभव करने के लिए स्वानुभव प्रत्यक्ष (निदिध्यासन) इन तीन प्रमाणों को स्वीकार किया गया है । उस प्राचीन समय में किसी भी वस्तु की सिद्धि इन्हीं तीन प्रमाणों से की जाती थी। सांख्यदर्शन ने भी अपने तत्त्वों की सिद्धि के लिए यही तीन प्रमाण माने हैं ।18 अतः कुन्दकुन्द द्वारा दर्शन के अंगभूत इन तीन प्रमाणों से उस शुद्ध प्रात्मा को सिद्ध करना स्वाभाविक है। समयपाहुड स्वरुचिविरचित नहीं : प्रागम और युक्ति का प्रस्तुतीकरण सबसे पहले कुन्दकुन्द यह स्पष्ट करते हैं कि मैं उस 'समयपाहुड' को कहूंगा जिसका प्रतिपादन केवली, श्रुतकेवली और पागम द्वारा किया गया है । इससे वे अपने 'समयपाहुड' को स्वरुचिविरचित न होने एवं केवली तथा श्रुतकेवली कथित होने से प्रमाण-सिद्ध करते हैं। इसके अतिरिक्त 'सुदकेवलीभणियं' (श्रुतकेवलीकथित) यह पद प्रथमा विभक्ति का

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