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आचार्य कुन्दकुन्द की दृष्टि में भक्ति तत्त्व
- डॉ० प्रेमसागर जैन
जैनधर्म 'ज्ञानप्रधान' है, यह कथन सत्य है किन्तु उसका भक्ति से सम्बन्ध नहीं, असत्य है । जहाँ ज्ञान की भी भक्ति होती हो वहां भक्ति-परकता होगी ही । जैन आचार्यो ने दर्शन का अर्थ श्रद्धान किया और उसे ज्ञान के भी पहले रखा । श्रद्धा को प्राथमिकता देकर प्राचार्यों ने भक्ति को ही प्रमुखता दी । यहाँ तक ही नहीं, उन्होंने भक्ति-भावना के आधार पर तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध भी स्वीकार किया । उनकी भक्ति सम्बन्धी प्रस्था संदिग्ध थी । तुलसी के बहुत पहले विक्रम की पहली शती में प्राचार्य कुन्दकुन्द भगवान् जिनेन्द्र से ज्ञान प्रदान करने की प्रार्थना कर चुके थे । 1
आचार्य कुन्दकुन्द का कथन है कि यद्यपि ज्ञान आत्मा में विद्यमान है किन्तु गुरु की भक्ति करनेवाला भव्य पुरुष ही उसे प्राप्त कर पाता है । इसका अर्थ है कि मोक्ष देनेवाला ज्ञान ज्ञानवानों की भक्ति से मिलता है । 2
तीर्थंकर की दिव्यवाणी में जो कुछ खिरा आगे चलकर वह लिपिबद्ध हुआ और ग्रन्थरूप में परिणत हो सका । उसे श्रुतज्ञान की संज्ञा से अभिहित किया गया । श्रुत नाम देने का भी कारण था । जब तक तीर्थंकर की दिव्य ध्वनि लिपिबद्ध नहीं हुई, सुन-सुन कर ही याद रक्खी जाती थी । गुरु-शिष्य को और फिर शिष्य अपने शिष्यों को मौखिकरूप से याद करवाता था । सुन-सुन कर याद करने के मूलाधार पर ही आगे के लिपिबद्ध शास्त्र या ग्रन्थ श्रुत कहलाये और उनमें लिखा ज्ञान 'श्रुतज्ञान' कहलाया । ग्रन्थरूप होने के कारण इसे द्रव्यश्रुत कहते हैं और इसी से भावश्रुत का जन्म होता है । इसकी महिमा