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जैनविद्या
ने
अणुव्रत महाव्रतों का परिपालन ( ( 5-26), प्रवचनसार का समूचा चारित्र अधिकार, नियमसार का व्यवहारचारित्र के अन्तर्गत किया गया अहिंसादि व्रतों का वर्णन ( 56-70 ), नवधा भक्ति (63), आदि का विवेचन व्यवहारचारित्र का अंग है जिसे भी कुन्दकुन्द भोपयोगी क्रिया के अन्तर्गत विधेय माना है । ये सभी शुभोपयोगी क्रियायें शुद्धोपयोग की प्राप्ति में कारण होती हैं और यही शुद्धोपयोग निर्वाण का साधन माना जाता है। (सा. 13 ) ।
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के
स्वरूप की यथार्थता को
व्याख्यायें - " वत्थु सहावो
संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि आचार्य कुन्दकुन्द समन्वयवाद के प्रस्थापक आध्यात्मिक संत थे जिन्होंने अपनी सारी रचनाओं में वस्तु पूरी तरह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया । उनकी धर्म की धम्मो, दंसण मूलो धम्मो, धम्मा सो हवइ अत्पसमभावो" आदि के पीछे उनका समन्वयवाद ही भरा हुआ है । जैन सिद्धांतों को सही तौर पर समझने के लिए इस समन्वयवाद को समझ लेना नितान्त आवश्यक है । पर इसके साथ ही समय की व्याख्या को भी समझना होगा । 'समय' का क्षेत्र वस्तुतः इतना व्यापक है कि उसमें सारा पदार्थ-जगत् समाहित " हो जाता है । समयसार की विषय-वस्तु की भी यदि समीक्षा की जाय तो ऐसा लगता है कि 'समय' के अतिरिक्त दर्शन में और कुछ भी शेष नहीं है । जैनेतर दार्शनिकों ने 'समय' को न तो इतना व्यापक बनाया और न उसके चिंतन पर वे इतने अधिक मुखर हुए । इस संदर्भ में आचार्य कुन्दकुन्द की ही एक विशिष्ट देन है जिसके आलोक में दर्शन का हर पद 'समय' पर प्रतिष्ठित हो जाता है । एक इसी शब्द में सारा जैनदर्शन श्राकलित दिखाई देता है इसलिए 'समय' के चिंतन को समझे बिना न तो 'समय-सार' समझा जा सकता है और न ही जैनदर्शन। 'समय' की व्याख्या के प्रसंग में ही वस्तु के स्वरूप की जितनी सुन्दर और प्रासंगिक मीमांसा समयसार में मिलती है उतनी अन्यत्र नहीं । यही कारण है कि उत्तरकालीन जैनाचार्य समयसार की ही व्याख्या करते हुए नजर आते हैं। उन्होंने 'समय' के चिंतन को पल्लवित भले ही किया है पर सामान्यतः वे कुन्दकुन्द के विचारों को छोड़ नहीं सके । जैनदर्शन का प्रारंभिक बिन्दु कुन्दकुन्द से ही शुरू होता है । उन्हें अध्यात्मवादी होने के साथ ही एक कुशल दार्शनिक भी माना जाना चाहिए । इस परिप्रेक्ष्य में यह आवश्यक है कि प्राधुनिक दार्शनिक चिंतन के संदर्भ में 'समय' परिशीलन किया जाय और उसमें कुन्दकुन्द के अवदान को स्पष्ट किया जाय । विश्वास है, अध्ययन और चिंतन की आधारशिला पर यह परिशीलन कुन्दकुन्द के व्यक्तित्व पर नया प्रकाश डालेगा और न केवल जैनदर्शन में ही बल्कि समूचे भारतीय दर्शनों में उनके विशिष्ट स्थान को निर्धारित करने में योगदान देगा ।
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