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जैनविद्या
आचार्य कुन्दकुन्द ने स्वीकार की थी। उन्होंने लिखा-आत्मा ज्ञानरूप है और श्रुत भी एक ज्ञान है, अतः श्रुतज्ञान भी आत्मा को जानने में पूर्णरूप से समर्थ है । उन्होंने जिनेन्द्र को 'श्रुतप्रवर' माना और उनसे प्रार्थना की-हे जिनवर ऋषभ ! मुझे शीघ्र ही श्रुत-लाभ प्रदान करें।
प्राचार्य कुन्दकुन्द ने तीर्थंकर की वाणी को मुख्यता दी। उन्होंने 'केवलिपण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि' अर्थात् केवलि-प्रणीत धर्म को अंगीकार किया। यदि वह धर्म ग्रन्थ में लिखा हुआ है तो वह ग्रन्थ वन्दनीय है । प्राचार्य कुन्दकुन्द का कथन है-श्रुत की अर्चना, पूजा-वन्दना और नमस्कार करने से सब दुःखों और कर्मों का क्षय होता है तथा बोधिलाभ, सुगतिगमन, समाधिमरण और जिन-गुण सम्पत्ति भी प्राप्त होती है । अतः मैं अरिहन्त के द्वारा कहे गये और गणधर के द्वारा गंथे गये महासागरप्रमाण श्रुतज्ञान को सिर झुकाकर प्रणाम करता हूँ । उन्होंने अपने ग्रन्थ 'समयसार' में एक स्थान पर लिखा है-'समयप्राभृत' को पढ़ कर जो उसके अर्थ में स्थित होगा वह उत्तमसुख अर्थात् मोक्ष-सुख प्राप्त करेगा । यहाँ तक ही नहीं, उन्होंने भक्ति से ज्ञान प्राप्त होने की बात भी लिखी। जैन-सिद्धान्त में पाँच प्रकार के ज्ञान माने गये हैं-मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान । प्राचार्य कुन्दकुन्द ने माना है कि ज्ञान की भक्ति से ही ज्ञान प्राप्त होता है अन्यथा नहीं । उनका यह भी कथन है कि विनय के बिना सम्यग्ज्ञान नहीं हो सकता।
आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में लिखा है कि श्रुत भी एक ज्ञान है, अतः श्रुतज्ञान भी आत्मा को जानने में पूर्ण समर्थ है ।
प्राचार्य कुन्दकुन्द की दृष्टि में पंचपरमेष्ठी का चिन्तवन है। उन्होंने लिखा हैअरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु मेरी आत्मा में ही प्रकट हो रहे हैं, अतः आत्मा ही मुझे शरण है । परमेष्ठी की परिभाषा बताते हुए उन्होंने कहा कि जो मल- ' रहित, शरीर-रहित, अतीन्द्रिय, केवलज्ञानी, विशुद्धात्मा और शिवंकर हो, वही परमेष्ठी है।
णमोकार मंत्र पंचपरमेष्ठी पर आधत है । यह मंत्र सर्वशक्ति-सम्पन्न है । आज भी आबाल-वृद्ध जैन प्रतिदिन इसका जाप करते हैं। यह एक लोकप्रिय मंत्र है। इसमें पंचपरमेष्ठी को नमस्कार किया गया है। प्राचार्य कुन्दकुन्द का विश्वास है कि इस मंत्र के पढ़ने से, ध्यान से, चिन्तवन से भव-भव में सुख मिलता है, उन्होंने भावपाहुड की 124 वीं गाथा में लिखा है-"पंचपरमेष्ठी लोकोत्तम हैं, वीर हैं, नर, सुर तथा विद्याधरों से पूज्य हैं। संसार के दुःखाभिभूत प्राणियों के लिए वे ही एकमात्र शरण हैं। उनका स्वभाव मंगलरूप है।
आचार्य कुन्दकुन्द के द्वारा निरूपित सोलह-कारण-भावनाओं में एक अर्हद्भक्ति भी है। उनका कथन है कि अर्हन्त की भक्ति करनेवाला अल्पकाल में ही तीर्थकर बन जाता है। प्राचार्य उमास्वाति ने भी तीर्थकरत्व नाम-कर्म के उदय में अर्हद्भक्ति को प्रमुख