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जैन विद्या
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प्रसंग में उन्होंने आत्मा की शुद्ध अवस्था की प्राप्ति का लक्ष्य बताया है (सम्यग् अयः बोधो यस्य भवति स समय आत्मा, अथवा समं एकीभावेनायने गमनं समयः प्राभृतं सारं सारः शुद्धावस्था समयस्यात्मनः प्राभृतं समयप्राभृतं, अथवा समय एव प्राभृतं समयप्राभृतं)।
आत्मा की इस शुद्ध अवस्था को पाने के लिए कुन्दकुन्द ने किसी व्यक्ति विशेष का अनुगमन करने के लिए नहीं कहा है। उनकी संस्कृति में किसी का पिछलग्गू होना सबसे बुरा माना गया है । उन्होंने तो बस इतना ही कहा है कि हमें पूरी निष्ठा के साथ समन्वयवादी और शुद्धतावादी होना चाहिए। इसमें स्वानुभूति का एक महत्त्वपूर्ण रोल रहता है । इस रोल को स्पष्ट करने के लिए आगे की ही गाथा में उन्होंने समय के अाधार पर स्वसमय और परसमय के रूप में वर्गीकरण किया है जिसे पारिभाषिक अर्थों में क्रमश: मुक्त और संसारी जीव कहा जा सकता है । आध्यात्मिक अथवा दार्शनिक दृष्टि से यह वर्गीकरण भले ही अलग-अलग-सा लग रहा हो परन्तु दोनों की भूमिका में दर्शन, ज्ञान और चारित्र का समन्वय भरा हुआ है । दोनों पहलुओं में इस त्रिवर्ग का पालन श्रेणी के अनुसार होता है और उस श्रेणी में शक्ति का अंश गुंथा रहता है।
समय की शक्ति को अभिव्यक्त करने के लिए ज्ञान-दर्शन और चारित्र की समन्वित पुटी एक अपरिहार्य साधन है। इन तीनों से समन्वित एक ज्ञायक शुद्ध आत्मा है (जाण वो सुद्धो) । आगे इसी समन्वित दृष्टि को स्पष्ट करने के लिए कुन्दकुन्द ने 'तिरिणवि आदा' कहकर इन तीनों के एक रूप को ही आत्मा का रूप माना है । इसी तथ्य के आधार पर उनके अनुवर्ती प्राचार्य उमास्वामी ने 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणिमोक्षमार्गः' कहकर इस त्रिपुटी को ही सम्यक् मोक्षमार्ग बताया है । कुन्दकुन्द ने इसी को भेदाभेद रत्नत्रय कहा है । उनकी दृष्टि में व्यवहारतः भले ही इन्हें विभक्त कर दिया जाय पर निश्चय नय से इनका सम्मिलित रूप ही आराध्य है । इसे समझाने की दृष्टि से ही उन्होंने एक उदाहरण दिया है कि जैसे धनार्थी व्यक्ति पहले राजा को राजा जानकर भरोसा करता है और फिर प्रयत्न-पूर्वक तदनुकूल आचरण करके उससे धन प्राप्त करता है उसी प्रकार मोक्षार्थी जीव को भी जीवरूपी राजा को जानकर उस पर भरोसा करते हुए रत्नत्रय के अनुकूल प्राचरण करना चाहिए (स. सा. 19-20) ।
सांसारिक जीवन का स्वरूप संक्लेशमय है। यह संक्लेश तब पैदा होता है जब दो तत्त्व पृथक्-पृथक् होते हैं । संघर्ष दो के बिना हो नहीं सकता। बंध भी दो में ही होता है और बंध कभी न सत्य होता है और न सुखद, वह तो विसंवाद है इसलिए असत्य है । जीव जब एकत्व के साथ एक हो जाता है तो वह निबंध हो जाता है। यह एकाकीपन किंवा अद्वैतावस्था की प्राप्ति सुलभ नहीं होती। उसी को सुलभ बनाने का लक्ष्य समयसार का मूल अभिधेय है (स. सा. 4)।
भारतीय दर्शन में निश्चय और व्यवहार की बात किसी न किसी रूप से सभी ने स्वीकार की है चाहे वह बौद्धदर्शन हो अथवा वैदिक परम्परा। इनकी बात करने के