Book Title: Jain Vidya 10 11
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 106
________________ 92 जनविद्या प्राचार्य कुन्दकुन्द के ग्रंथों का अध्ययन करने पर उनका दार्शनिक चिंतन और अध्यात्मवादी मनोहारी व्यक्तित्व हर एक की आँखों के सामने खड़ा हो जाता है । सारे भारतीय दर्शनों का गंभीर अध्ययन उनके हर शब्द में झलकता है। इसी आधार पर उन्होंने 'समय' का परिशीलन किया । 'समय' के माध्यम से एक ओर उन्होंने आगमों को अपने कथ्य की आधारशिला बनाया तो दूसरी ओर उन्होंने काल की पृष्ठभूमि में प्रात्मा के चिंतन को आगे बढ़ाया। इस तरह आगम, काल और आत्मा का त्रिकोण बनाकर उन्होंने अपने दार्शनिक चिंतन को बड़े आकर्षक ढंग से प्रस्तुत किया। उनके टीकाकारों ने भी प्रात्मा की इस व्याख्या में भली-भांति उनका साथ दिया । प्राचार्य कुन्दकुन्द के पूर्ववर्ती जैनेतर दार्शनिक कहीं ज्ञान पर जोर देते थे तो कहीं भक्ति अथवा चारित्र को अपनी योग-साधना का आधार बनाते थे । जैन-परम्परा ने इन दोनों की पृथक्-पृथक् मान्यता को अस्वीकार किया और उनको मिलाकर एक तीसरे बिन्द को खड़ा कर दिया जिसमें सभी विरोधात्मक स्वर मौन होकर एक हो गये। आचारांग, सूत्रकृतांग, षट्खंडागम आदि महनीय आगमिक ग्रंथों में यह तथ्य बीजरूप में उपलब्ध होता है। इसी दृष्टि का पल्लवन कुन्दकुन्द ने समयसार, प्रवचनसार और पंचास्तिकाय आदि ग्रंथों में विस्तार के साथ किया है। इनमें समयसार ग्रंथ कदाचित् सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण इस संदर्भ में कहा जा सकता है कि उसने आत्मा की सारी व्याख्या में अपने को खपा दिया है । समयसारगत समय शब्द की व्याख्या भाषा-विज्ञान में अनूठी मानी जानी चाहिए । कुन्दकुन्द के पहले समय शब्द की आत्मा के अर्थ में जानकारी नहीं के बराबर थी। उन्होंने काल के स्वरूप की अवधारणा को सामने रखकर समय को आत्मा के अर्थ में प्रयोग कर लिया । इस बहुआयामी शब्द के भीतर एक ओर आत्मा की समची कल्पना भरी हई है तो दूसरी ओर समय का संदर्भ जीवन से जूडा हा है। इन दोनों दृष्टियों के ऊपर शास्त्र (आगम) और अनुभूति की पतें लगी हुई हैं । इन पर्तों को साधक जैसे-जैसे उघाड़ता चला जाता है, वैसे-वैसे उसे उनमें से ज्ञान की नयी-नयी चिनगारियाँ मिलती चली जाती हैं। कुन्दकुन्द ने इन चिनगारियों के समन्वितरूप को पहली ही गाथा में 'समयपाहुड' कहकर अपने कथ्य की ओर संकेत किया है और यह भी फलश्रुति स्पष्ट कर दी है कि जो भी इस समयप्राभृत का परिपालन करेगा वह अविनाशी, निर्मल और निरूपम सिद्ध अवस्था को प्राप्त करेगा। वंदित्तु सव्वसिद्ध, धुवमचलमरणोवमं गदि पत्ते । वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुदकेवलीभरिणदं ॥ इस गाथा में भरे हुए भावों को अमृतचन्द्राचार्य और जयसेनाचार्य ने अपने टीकाग्रंथों में उंडेलने की भरसक कोशिश की । अमृतचंद्र के कलशों ने तो सचमुच में समयसाररूपी मंदिर के भव्य शिखर पर स्वर्णकलश ही रख दिये हैं। उनका हर कलश अनुभूतिपरक काव्य से अनुरंजित है जबकि जयसेनाचार्य ने समयसार की गाथाओं को व्यावहारिक स्तर पर खड़े होकर शब्दश: समझाने का प्रयास किया है। समयप्राभृत की व्याख्या के

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