Book Title: Jain Vidya 10 11
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 99
________________ जैन विद्या 85 शराब के सेवन द्वारा व्यक्ति नशे में धुत्त होकर विवेक-शून्य हो जाता है तथा उलटे-सीधे कार्य करने लगता है, व्यक्ति का नशा जितना तीव्र होता है उसकी सोचने-समझने की क्षमता उतनी ही कम हो जाती है। इसी प्रकार चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से उत्पन्न होनेवाले संवेगों और वासनाओं के वशीभूत होकर भी व्यक्ति विवेकशून्य हो जाता है । ये भाव जितने तीव्र होते हैं व्यक्ति में सोचने-समझने की क्षमता का उतना ही प्रभाव होता है । सम्यग्दृष्टि व्यक्ति में क्रोधादि से ग्रस्त अवस्था में भी जितनी मात्रा में सोचनेसमझने की क्षमता होती है वह उनके स्वरूप का विश्लेषण करता हुआ और अपने क्षमा, मार्दव आदि रूप शुद्ध स्वरूप को दृष्टि में रखता हुआ उन पर नियन्त्रण स्थापित करने का प्रयास करता है । जितने अशों में वह इस कार्य में सफल नहीं हो पाता तथा क्रोधादि के वशीभूत होकर गलत कार्य कर बैठता है उसके लिए वह भविष्य में प्रायश्चित्त करता है। पूर्व में भोगे गये पदार्थों की स्मृतियाँ, काम, क्रोधादि विकार व्यक्ति की चेतना को दीर्घ काल तक अभिभूत किये रहते हैं तथा व्यक्ति की सक्रियता की दिशा निर्धारित करते रहते हैं । व्यक्ति अपने क्रोध के विषयभूत व्यक्ति से बदला लेने के लिए योजनाएं बनाता रहता है, उन योजनाओं की क्रियान्विति हेतु प्रयास करता रहता है। पूर्व में भोगे गये पदार्थ उसे याद आते रहते हैं तथा वह उन्हें पुनः प्राप्त करने के लिए व्याकुलता का अनुभव करता रहता है । एक अज्ञानी व्यक्ति अपने इन भावों से तादात्म्य स्थापित कर अपने समस्त चिन्तन और पुरुषार्थ को इनकी तृप्ति पर केन्द्रित कर देता है तथा निरन्तर नवीन कर्मबन्ध करता रहता है । इसके विपरीत एक सम्यग्दृष्टि व्यक्ति अपने चिन्तन और पुरुषार्थ को अपने विषयासक्ति, क्रोध आदि विकारों पर नियन्त्रण स्थापित करने तथा स्वभाव में स्थित होने पर केन्द्रित करता है । वह पूर्वकृत तथा भविष्य में किये जानेवाले विषयभोग, क्रोध, हिंसा आदि से अपनी चेतना को मुक्त बनाने के लिए प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान करता है । वह अज्ञानी व्यक्ति के समान पूर्व में भोगे गये पदार्थ की पुनःप्राप्ति हेतु संकल्प नहीं करता अपितु यह संकल्प करता है कि मैं पूर्व में भोगे गये पदार्थों का परित्याग करता हूँ। मुझे भविष्य में किसी परपदार्थ का भोग नहीं करके अपने ज्ञानानन्द स्वभाव का भोग करना है। मैंने पूर्व में जो क्रोध किया वह अनुचित था। मैं अब उस क्रोध को, बदला लेने की भावना को छोड़ता हूँ। मैं अब भविष्य में न तो किसी पर क्रोध करूंगा, न ही किसी प्रकार का प्रतिशोध लूंगा, मैं सबके प्रति क्षमाभाव और मैत्रीभाव धारण करता हूँ। ____जीवन में विविध परिस्थितियों के सद्भाव में व्यक्ति में भिन्न-भिन्न प्रकार के भाव प्रकट होते हैं । आर्थिक समृद्धि के सद्भाव में व्यक्ति में अभिमान, तृष्णा आदि दोष उत्पन्न होते हैं, वह अपने आपको गरीबों से श्रेष्ठ मानने लगता है, विषयभोगों में लीन होने लगता है और अधिक धन प्राप्त करने की आकांक्षा करता है। इसके विपरीत गरीब होने पर वह हीन भावना से ग्रस्त हो जाता है, समृद्ध व्यक्तियों से ईर्ष्या करने लगता है । उच्चपद की प्राप्ति एक प्रकार की मानसिक अवस्थात्रों और व्यक्तित्व का निर्माण करती

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