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जैनविद्या
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है । जो व्यक्ति यह संकल्प करता है कि जो शरीर से भिन्न है तथा स्वसंवेदन प्रत्यक्ष द्वारा 'मैं हूँ' इस रूप में जाना जा रहा है वही मेरा स्वरूप या प्रात्मा है वह अन्तरात्मा है । जो समस्त कर्म-कलंक (ज्ञानावरणीयादि द्रव्यकर्म तथा मोह, राग, द्वेषादि भावकर्म) से रहित हो, भूख, प्यास, काम, क्रोधादि अन्तरंग और बहिरंग मलों से रहित हो तथा अनन्तज्ञानादि परम वैभव से सम्पन्न हो वह परमात्मा है ।
एक सम्यग्दृष्टि व्यक्ति यह जानता है कि जीवादि बाह्य तत्त्व वास्तव में हेय (त्यागने योग्य) हैं, कर्मोपाधिजनित गुण-पर्यायों से व्यतिरिक्त आत्मा आत्मा को उपादेय (प्राप्तकरने योग्य) है । वह अपनी कर्मोपाधिजनित गुण-पर्यायों से व्यतिरिक्त शुद्ध आत्मा को प्राप्त करने के उद्देश्य से निरन्तर अपने शुद्ध स्वरूप का चिन्तन, भावना और ध्यान करता है तथा अपने विकारों के परित्याग का संकल्प करता है। वह यह विचार करता है कि मैं सिद्धों के समान जन्मजरामरण से रहित अष्ट गुणों से अलंकृत, अशरीरी, अतीन्द्रिय, अविनाशी, निर्मल, विशुद्ध आत्मा हूँ। जो केवलज्ञानस्वभाव, केवलदर्शनस्वभाव, सुखरूप और केवलशक्तिरूप आत्मा है, वह मैं हूँ । प्रकृति-बन्ध, स्थिति-बन्ध, अनुभाग-बन्ध और प्रदेश-बन्ध से रहित जो आत्मा है, वह मैं हूँ।10 मैं न तो गुणस्थान हूँ, न मार्गणास्थान हूँ, न मैं क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष या मोह हूँ, न मैं मनुष्य, देव, तिर्यञ्च या नारकी हूँ, न मैं इन पर्यायों का कर्ता, करानेवाला या अनुमोदक हूँ 11 रागद्वेषादि, गुणस्थान, मार्गणास्थान आदि पूर्वोक्त समस्त भाव (कर्मोपाधिजनित होने के कारण) परद्रव्य हैं, त्याज्य हैं इसलिए मैं इन सब का परित्याग कर अपनी निर्मल आत्मा में स्थित होता हूँ।12 इस प्रकार सतत भेदाभ्यास के द्वारा उत्पन्न हुए जीव के मध्यस्थ भाव को चारित्र कहा जाता है । इसको दृढ़ करने के उद्देश्य से कुन्दकुन्दाचार्य ने प्रतिक्रमणादि के स्वरूप का प्रतिपादन किया है ।13
कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं-"जो सदा प्रतिक्रमण करता है, प्रत्याख्यान करता है, आलोचना करता है वह आत्मा वास्तव में चारित्र है । भविष्य काल का जो शुभ-अशुभ कर्म जिस भाव में बंधता है उस भाव से जो निवृत्त होता है वह आत्मा प्रत्याख्यान है । पूर्वकृत जो अनेक प्रकार के विस्तारवाला शुभाशुभ कर्म है उससे जो आत्मा अपने आप को निवृत्त करता है वह आत्मा प्रतिक्रमण है। वर्तमान काल में उदयागत जो अनेक प्रकार के विस्तारवाला शुभाशुभ कर्म है उस दोष को जो आत्मा ज्ञाता भाव से जान लेता है वह वास्तव में आलोचना है ।"14
एक सम्यग्दृष्टि व्यक्ति अन्तरात्मा बनकर-आत्मानुभूति से युक्त होकर अपने शुद्ध स्वरूप का चिन्तन करता है, ध्यान करता है। वह निरन्तर यह विचार करता है कि भूख, प्यास, निद्रा आदि उसका स्वभाव नहीं है, वह इन सब से रहित ज्ञानदर्शनमय आत्मा है । अपने शुद्ध स्वरूप को जानते हुए भी उसे क्षुधावेदनीय, तृषावेदनीय आदि कर्मों का उदय होने पर व्याकुलता का अनुभव होता है जिसे वह वीर्यान्तराय कर्म के उदय के परिणामस्वरूप सहनशक्ति का अभाव होने के कारण सहन नहीं कर पाता । यदि वह