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जैनविद्या
व्यवहार नय से ही सम्यक्त्व कहा है। निश्चय नय से तो अपना आत्मा ही सम्यक्त्व है ।"2 निश्चय नय से सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र का स्वरूप है-"जो आत्मा अपनी आत्मा में लीन हो, आत्मानुभूति से युक्त हो वही सम्यग्दृष्टि है। जो आत्मा को जानता है वह सम्यग्ज्ञान है तथा जो आत्मा अपने स्वरूप में आचरण करता है वही सम्यग्चारित्र है, यही मोक्षमार्ग है ।"
सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का स्वरूप
जीव, अजीव, आस्रव (कर्मों का आना), बन्ध (कर्मों का बंधना), संवर (नवीन कर्मास्रव का निरोध), निर्जरा (पूर्वबद्ध कर्मों का विनाश), मोक्ष, पुण्य और पाप इन नौ पदार्थों के स्वरूप की प्रतीति या श्रद्धा सम्यग्दर्शन तथा इनके स्वरूप का निश्चय सम्यग्ज्ञान है । व्यवहार नय से नौ पदार्थों के स्वरूप का दर्शन और ज्ञान ही निश्चय नय से एक आत्मा का दर्शन और ज्ञान है। शास्त्रों में 'व्यवहार नय' और 'निश्चय नय' पदों का अनेक अर्थों में प्रयोग किया गया है । यहाँ पर एक वस्तु के विश्लेषणपूर्वक उसके अनेक अंशों या धर्मों को समझते हुए उस वस्तु के स्वरूप को ग्रहण करनेवाले नय को व्यवहार नय कहा गया है तथा उन अनेक धर्मों की एकतारूप एक द्रव्य को ग्रहण करनेवाला नय निश्चय नय है। व्यवहार नय एक सत्ता को उसके अनेक गुणों के माध्यम से ग्रहण करता है तथा निश्चय नय अनेक गुणों में व्याप्त एक अखण्ड सत्ता को जानना है । एक द्रव्य को उसके अनेक गुणों को जानते हुए ही जाना जा सकता है लेकिन यदि पृथक्-पृथक् गुणों का ज्ञान तो हो जाय पर उन गुणों की एकतारूप द्रव्य को ग्रहण नहीं किया जा सके तो उन गुणों का ज्ञान मिथ्या है। अतः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र के प्रति निश्चय नय की प्रवृत्ति व्यवहारनयपूर्वक ही हो सकती है पर यदि व्यवहार नय से नौ पदार्थों के स्वरूप को पृथक्-पृथक् जान लेने पर भी व्यक्ति को निश्चय नहीं हो कि ये नौ पदार्थ पृथक्-पृथक् न होकर एक ही आत्मा हैं-प्रात्मा ही शरीर से संबद्ध है, आत्मा ही रागद्वेषादि भावकर्मरूप से परिणमित होते हुए पुण्य और पाप का आस्रव और बन्ध है, आत्मा ही रागद्वेषादि से रहित होकर शुद्ध होते हुए संवर और निर्जरा है, आत्मा ही समस्त विकारों से रहित होने पर मोक्ष है, तो उसका नौ पदार्थों का ज्ञान यथार्थ नहीं हो सकता।
एक सम्यग्दृष्टि व्यक्ति नौ पदार्थों के स्वरूप को भली प्रकार जानते हुए अपनी आत्मा को अच्छी तरह जानता है । वह जीव और अजीव तत्त्व का ज्ञाता होने के कारण वर्तमान समय में अपनी शरीराश्रितता, आर्थिक, सामाजिक, भौतिक परिस्थितियों और कर्मोदय के अपने ऊपर पड़नेवाले प्रभावों के स्वरूप को अच्छी तरह जानता है । वह यह जानता है कि यद्यपि प्राकृतिक रूप से वह एक शाश्वत, शरीर-रहित तथा अनन्तदर्शनज्ञानसुखवीर्यसम्पन्न प्रात्मा है, उसकी ज्ञानादि सामर्थ्य अन्यनिरपेक्ष है, वह इन्द्रियादि किसी भी पदार्थ की सहायता लिये बिना सब-कुछ को एक साथ जानने की क्षमता रखता है लेकिन वर्तमान समय में उसकी ये शक्तियाँ कर्मों से प्रावृत होकर मन्द हो गयी हैं तथा