Book Title: Jain Vidya 10 11
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 89
________________ जैन विद्या 75 प्राचार्य अमृतचन्द्र ने भी "ततो निमित्तनैमित्तिकभावमात्रेणैव कर्तृकर्मभोक्तृभोग्यत्वव्यवहारः” (स. सा./आ. 349-355) कहकर जीव पर पुद्गल कर्मों के कर्तृत्व, भोक्तृत्व प्रादि के आरोप को निमित्तनैमित्तिकभाव पर ही आश्रित बतलाया है। यहाँ 'व्यवहार' शब्द उपचार के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। तात्पर्य यह है कि उपचार किसी न किसी वास्तविक सम्बन्ध पर आश्रित होता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि उपचारात्मक कथन में जिस धर्म का उपचार या आरोप किया जाता है वह असत्य होता है किन्तु जिस सम्बन्ध पर वह आरोप आश्रित होता है वह सम्बन्ध वास्तविक होता है । जैसे 'यह बालक सिंह है' इस कथन में बालक पर आरोपित सिंहत्व धर्म बालक में असत्य है, किन्तु सिंह के साथ उसका क्रौर्य-शौर्यादि गुणों का सादृश्य सम्बन्ध वास्तविक है। इसी प्रकार 'जीव कर्मकर्तृत्व' धर्म असत्य है किन्तु पुद्गलकर्मों के साथ उसका निमित्तनैमित्तिकभाव वास्तविक है। 2. वस्तु के परद्रव्यसम्बन्ध तथा परद्रव्याश्रितभाव का कथन वस्तु के परद्रव्यसम्बन्ध तथा परद्रव्याश्रितभाव का कथन प्राचार्य कुन्दकुन्द की दृष्टि से असद्भूतव्यवहारनय का दूसरा लक्षण है । उपचार के लक्षण में हमने देखा कि दो वस्तुओं में निमित्तनैमित्तिक, संयोग, संश्लेष आदि कोई सम्बन्ध होने पर उनमें से किसी एक के धर्म का दूसरी पर आरोप करना उपचार कहलाता है, किन्तु जब स्वयं इन सम्बन्धों का कथन किया जायेगा तब वह उपचार नहीं कहलायेगा क्योंकि ये सम्बन्ध तो उन वस्तयों में स्वतः होते हैं, इनका आरोप नहीं किया जाता। अब प्रश्न उठता है कि जब ये निमित्तनैमित्तिकादि सम्बन्ध उन वस्तुओं में स्वतः होते हैं जिनमें इनका कथन किया जाता है तो इनका कथन किस नय के अन्तर्गत होगा? वास्तविक होने से क्या इनका कथन निश्चयनय के अन्तर्गत होगा? इसका उत्तर यह है कि प्रत्येक वास्तविक धर्म का कथन निश्चयनय नहीं है अपितु वास्तविक होते हुए भी जो परमार्थभूत होता है उसका कथन निश्चयनय कहलाता है । वस्तु का वह मूल तत्त्व जिससे उसकी स्वसत्ता तथा अखंडता का निर्धारण होता है तथा जो विभिन्न गुण-पर्यायों के रूप में अभिव्यक्त होता है, 'परमार्थ' नाम से अभिहित होता है। उसी को ग्रहण करनेवाला ज्ञान एवं प्रतिपादित करनेवाला वचन निश्चयनय कहलाता है। कोई भी वस्तु किसी अन्य वस्तु की सत्ता का अंग नहीं होती इसलिए एक वस्तु का दूसरी वस्तु के साथ कोई भी सम्बन्ध परमार्थभूत नहीं होता । अतः भिन्न वस्तुओं में निमित्तनैमित्तिकादि सम्बन्ध निश्चयनय से न होकर व्यवहारनय से होते हैं । प्राचार्य कुन्दकुन्द ने नियमसार (गाथा 159) में केवली भगवान् को व्यवहारनय से सर्वज्ञ इसीलिए कहा है कि परद्रव्यों के साथ केवली का ज्ञेयज्ञायक सम्बन्ध यथार्थ होते हुए भी केवली और परद्रव्यों में तादात्म्यभाव या सत्तात्मक अभेद (एकवस्तुता) नहीं है, इसलिए उनका ज्ञेयज्ञायक सम्बन्ध परमार्थभूत न होने से निश्चयनयात्मक न होकर व्यवहारनयात्मक है । इसका स्पष्टीकरण प्राचार्य जयसेन ने निम्नलिखित शब्दों में किया है

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