________________
70
जैन विद्या
अप्रतिक्रमणं द्विविध-ज्ञानिजनाश्रितं प्रज्ञानिजनाश्रितं चेति प्रज्ञानिजनाश्रितं सद्प्रतिक्रमणं तद्विषयकषायपरिणतिरूपं भवति । ज्ञानिजीवाषितमप्रतिक्रमणं तु शुद्धात्मसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठान-लक्षणत्रिगुप्तिरूपम् । तच्च ज्ञानिजनाश्रितमप्रतिक्रमरणं सरागचारित्रलक्षणं शुभोपयोगापेक्षया यद्यप्यप्रतिक्रमणं भण्यते तथापि वीतराग-चारित्रापेक्षया तदेव निश्चयप्रतिक्रमणम् । समस्त शुभाशमान-वदोषनिराकरणरूपत्वात् ।
इसका अर्थ यह है कि अप्रतिक्रमण दो प्रकार का है । प्रथम-ज्ञानिजनाश्रित और दूसरा-अज्ञानिजनाश्रित । इन दोनों में अज्ञानिजनाश्रित अप्रतिक्रमण तो विषय-कषाय की परिणतिरूप है। किन्तु ज्ञानिजनाश्रित अप्रतिक्रमण तो शुद्धात्मा के समीचीन श्रद्धानज्ञानअनुष्ठानरूप त्रिगुप्तिरूप है । ज्ञानिजीवाश्रित अप्रतिक्रमण यद्यपि सरागचारित्ररून शुभोपयोग रूप है लक्षण जिसका उस शुभोपयोग की अपेक्षा तो अप्रतिक्रमण कहा जाता है. तथापि वीतराग-चारित्ररूप होने से वह अप्रतिक्रमण 'निश्चयप्रतिक्रमण' स्वरूप है क्योंकि वह संवररूप है । सभी शुभ और अशुभ प्रास्रव के निराकरणरूप हैं । प्रकारान्तर से अज्ञानिजनाश्रित अप्रतिक्रमण स्वयं अशुभरूप आस्रव का कारण होने से विषकुम्भ ही है ।
दूसरा-अपराधप्रक्षालनरूप प्रतिक्रमण शुभास्रवरूप है । ये दोनों यद्यपि स्वरूप से भिन्न-भिन्न हैं अतः व्यवहार से अशुभास्रव की अपेक्षा शुभास्रव कथंचित् उपादेय है तथापि तीसरी भूमिका वीतराग चारित्र की है जो दोनों प्रास्रवों के अभावरूप, संवररूप है ।
शुभ और अशुभ दोनों प्रास्रव शुभाशुभकर्मबन्ध के कारण हैं अतः संसार के ही कारण हैं । उससे शुभाशुभगतिरूप संसार रहेगा । मुक्ति तो आस्रवभाव के अभाव में होगी यह तात्पर्य लेकर ही निरास्रव दशा को अमृतकुम्भ और सास्रव दशा को विषकुम्भ कहा है। .
अमृतचन्द्राचार्य अपनी टीका के कलशों में इसे अधिक स्पष्ट करते हुए लिखते हैं (कलश 188)-यत्र प्रतिक्रमणमेव इत्यादि । जब यहाँ पर प्रतिक्रमण को ही विषकुम्भ कहा गया तब अज्ञानिजनाश्रित अप्रतिक्रमण सुधाकुम्भ कैसे हो सकता है ? यह बात समझने योग्य है । ऊपर की वीतरागचारित्र की अप्रतिक्रमणरूप भूमिका पर चढ़ने का उपदेश पाकर भी जन (सामान्य अज्ञानीजन) क्यों प्रमाद करता है, नीचे गिरता है । ऊपर की भूमिका का क्यों आश्रय नहीं करता, विपरीतार्थ क्यों ग्रहण करता है ? .
प्रमादी शुद्ध भाव का धारक नहीं हो सकता, कारण उसके तो कषायभाव की ही गुरुता है अतः अपने प्रात्मरस से भरे हुए स्वभाव में ही मुनिजन नियम से स्थिर होकर निश्चय से मोक्ष पाते हैं।
ग्रन्थों में सर्वत्र मोक्षमार्ग शुभाशुभ से परे वीतरागता रूप ही प्रतिपादित किया है अतः नीची भूमिका में शुभभाव को अशुभ की उपेक्षा कथंचित् उपादेय बताया है। इससे सांसारिक देव, चक्रवर्त्यादिक पद तो प्राप्त होते हैं पर निर्वाण नहीं (प्रवचनसार 6) ।