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जैनविद्या
इतने आवश्यक निर्देश के बाद भी प्राचार्य कुन्दकुन्द समयसार, मोक्षाधिकार की दो गाथाओं में लिखते हैं
प्रतिक्रमणादि क्रियाएँ विषकुम्भ हैं और अप्रतिक्रमणादि क्रियाएँ अमृतकुम्भ हैं । प्रथम ही प्रथम इन गाथाओं का पढ़नेवाला कंपायमान हो जाता है कि प्राचार्य कुन्दकुन्द कैसे सभी प्राचार-शास्त्रों के विरुद्ध ऐसा प्रतिपादन करते हैं । वे गाथाएँ ये हैं
पडिकमणं - पडिसरणं - पडिहरणं - धारणा रिणयत्ती य । रिणदा-गरुहा-सोही अठविहो होई विसकुम्भो ।। 306 ॥ अपडिकमणं - अप्पडिसरणं - अप्पडिहारो अधारणा चेव ।
अरिणयत्ती य अरिणदागरुहासोही अभयकुम्भो ॥ 307 ॥ पाठक इन गाथाओं का अर्थ जैसा कि ऊपर बताया है स्वयं विचार करें । वह इतना विरुद्ध प्रतीत होता है कि इसे मुनिजन आचरित करें तो उनका मुनिपना ही समाप्त हो जाय । प्रश्न है कि यहाँ कुन्दकुन्द भगवान् का क्या आशय है ? इसका रहस्य श्री अमृतचन्द्राचार्य व श्री जयसेनाचार्य ने बहुत स्पष्टतया खोजा है।
अप्रतिक्रमण माने प्रतिक्रमण न करना, यह दो प्रकार का हो सकता है । प्रथमजो अपराध करे (दोष लगावे) किन्तु उसके निराकरणरूप प्रतिक्रमण न करे । दूसराअपराध ही न करे । ऐसा साधु प्रतिक्रमण क्यों करेगा ? दोनों में अप्रतिक्रमण है ।
___ इन दोनों में प्रथम, अपराधी द्वारा किया जानेवाला अप्रतिक्रमण विषकुम्भ ही है । पर अपराध न करे तो अप्रतिक्रमण सर्वथा उपादेय है । दृष्टान्त से समझा जाय-जो किसी का अपराध करे और क्षमा न मांगे तो यह 'अक्षमा का भाव' स्वयं में अपराध है । पर जो किसी का अपराध ही न करे तो उसे किसी से क्षमा मांगने की जरूरत नहीं है । अतः प्रथम 'अक्षमा का भाव' अपराध है पर द्वितीय 'अक्षमा का भाव' स्वयं अपराध से दूर होने से अक्षमारूप प्रशस्तभाव है।
. टीकाकारों ने इसे इस रूप में उल्लिखित किया है-प्रथम पक्ष में तो अपराध कर उसका निराकरण न करना, अप्रतिक्रमण करना अपराध है ।
द्वितीय पक्ष में प्रतिक्रमण करना व्यवहार से उपादेय है ।
तृतीय पक्ष में प्रतिक्रमण, अप्रतिक्रमण से ऊपर उठकर जो 'अप्रतिक्रमण' है वह तीसरी भूमिका है जो अमृतकुम्भ है ।
यद्यपि दूसरा पक्ष व्यवहार से उपादेय है पर निश्चयनय से तृतीय भूमिका ही अमृतकुम्भ है । उसके समक्ष दूसरी भूमिका यह बतलाती है कि आपने अपराध किया इससे प्रतिक्रमण आदि करना पड़ा । यदि अपराध ही न करते तो प्रतिक्रमण की आवश्यकता ही नहीं रहती तो वही अमृतकुम्भ होता पर इसी तीसरी विशुद्ध भूमिका की अपेक्षा वह सापराधी का प्रतिक्रमण विषकुम्भ ही है । कारण वह आपके अपराध की सूचना दे रहा है । टीकाकार प्राचार्य जयसेन के शब्द पढ़िये