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जैनविद्या
आचार्य कुन्दकुन्द का मूल प्रतिपाद्य जैन-दर्शन में प्रतिपादित वस्तुव्यवस्था एवं मुक्ति का मार्ग रहा है। वस्तुव्यवस्था का प्रतिपादन उन्होंने द्रव्याथिक और पर्यायाथिक नयों के माध्यम से किया है और मुक्ति के मार्ग का निरूपण निश्चय-व्यवहार नयों के माध्यम से।
'समयसार' कुन्दकुन्द की एक ऐसी श्रेष्ठ रचना है जो विगत दो हजार वर्षों से जैनसन्तों का मार्गदर्शन करती आ रही है । इसमें शुद्ध नय से नव तत्त्वों का प्रतिपादन है ।
'प्रवचनसार' कुन्दकुन्द की दूसरी प्रौढ़तम रचना है जिसमें जैन-दर्शन में प्रतिपादित वस्तु-स्वरूप का सशक्त प्रतिपादन है ।
'पंचास्तिकाय संग्रह' कुन्दकुन्द की जनसाधारण को तत्त्वज्ञान कराने के लिए अत्यन्त उपयोगी कृति है। इसमें सरल और सुबोध भाषा में षद्रव्य, पंचास्तिकाय, नवपदार्थों एवं रत्नत्रयरूप मुक्तिमार्ग का प्रतिपादन है ।
आचार्य कुन्दकुन्द के गंभीरतम ग्रन्थराज समयसार, प्रवचनसार एवं पंचास्तिकाय संग्रह पर प्राचार्य अमृतचन्द्र ने आत्मख्याति, तत्त्वदीपिका और समयव्याख्या नामक सशक्त टीकाएँ लिखी हैं, जो आज इन पर उपलब्ध समस्त टीकाग्रन्थों में सर्वाधिक प्रचलित एवं श्रेष्ठ हैं।
अमृतचन्द्रजी जैसे समर्थ प्राचार्य की सशक्त टीकाओं के होते हुए भी प्राचार्य कुन्दकुन्द के इन्हीं ग्रंथों पर सरल-सुबोध टीकाएँ लिखकर आचार्य जयसेन ने अद्भुत साहस का परिचय दिया है।
अमृतचन्द्रीय टीकाएँ पद्यमिश्रित गद्य में हैं । जयसेनीय टीकाएँ नामोल्लेखपूर्वक गुणस्थान परिपाटी से की गई पदखण्डान्वयी टीकाएँ हैं ।
प्राचार्य अमृतचन्द्र की टीकाओं में भावों की गम्भीरता के साथ-साथ उनको वहन करने में समर्थ भाषा के जिस प्रौढ़तम रूप के दर्शन होते हैं जयसेन की टीकात्रों में वह प्रौढ़ता दिखाई नहीं देती। जयसेनीय टीकात्रों की भाषिक विशेषता सहज बोधगम्यता है । अमृतचन्द्र की टीकाएँ अन्य टीकात्रों की अपेक्षा रखती हैं जबकि जयसेन की टीकाओं को अन्य टीकाओं की आवश्यकता नहीं है। यही कारण है कि जयसेन की टीकाओं की भाषाटीकाएँ न के बराबर हैं।
अमृतचन्द्र मूलग्रन्थकर्ता के भावों को हृदयंगम कर उसे इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं जैसे स्वतंत्र ग्रन्थ लिख रहे हों जबकि जयसेन अन्वयार्थ, भावार्थ, तात्पर्यार्थ आदि बातें मूलानुसार बताते चलते हैं। यही कारण है कि अमृतचन्द्र टीकाकार होते हुए भी स्वयं ग्रन्थ-प्रणेता से प्रतीत होते हैं पर जयसेन विशुद्ध टीकाकार ही हैं ।