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सम्यक्त्व
सम्मत्तरयरणभट्ठा जागंता बहुविहारं सत्थाइं । राहणाविरहिया भमंति तत्थेव तत्थेव ॥ 4 ॥
- जो व्यक्ति सम्यक्त्त्वरूपी रत्न ( समताभाव) से वंचित हैं वे बहुत प्रकार के शास्त्रों को जानते हुए भी आराधना से रहित होने के कारण वहाँ ही वहाँ ही ( संसार में ) भ्रमण करते रहते हैं ।
सम्मत्तसलिलपवहो णिच्चं हियए पवट्टए जस्स ।
कम्मं वालुयवरणं बंधुच्चिय पासए तस्स ॥ 7 ॥
- जिसके हृदय में सम्यक्त्त्वरूपी जल का प्रवाह नित्य विद्यमान होता है उसका कर्मरूपी बंधन बालू के ढेर की तरह निश्चय ही नष्ट हो जाता है ।
दर्शनपाहुड