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जैनविद्या
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पर्याय द्रव्य में उत्पन्न होती है क्योंकि कार्य का वास्तविक नियामक द्रव्य ही होता है । अतः अमृतचन्द्र का कथन है कि जीव और अजीव द्रव्यों में नियमित क्रम से परिणाम उत्पन्न होते हैं । स्वयं कुन्दकुन्द का कथन है कि-'अन्य द्रव्य से अन्य द्रव्य के गुण की उत्पत्ति नहीं की जा सकती, इससे सब द्रव्य अपने-अपने स्वभाव से उत्पन्न होते हैं।' 21 इस प्रकार हम कह सकते हैं कि कुन्दकुन्द के वस्तुस्वातन्त्र्य के सिद्धान्त के तीन निष्कर्ष निकलते हैं
(1) समान्तरवाद, (2) क्रमनियमितपरिणामवाद, (3) स्वभाववाद ।
कुन्दकुन्द बहुत स्पष्ट हैं और उनके कर्ता-कर्म-संबंधी सूत्रों की मनमरजी से व्याख्या नहीं की जा सकती। क्रिया-प्रतिक्रियावाद में कुन्दकुन्द द्रव्य की हानि देखते हैं । जहाँ एक द्रव्य है वहीं शेष सभी द्रव्य भी मौजूद हैं, परन्तु कोई अपने स्वभाव को नहीं छोड़ता। यह प्रत्येक द्रव्य की स्वतन्त्रता का उदघोष है।22 प्रत्येक द्रव्य अपने स्वभाव या योग्यता के अनुसार परिणमन करता है। प्रत्येक द्रव्य की यह स्वतन्त्रता द्रव्यों के परिणामविशेषों में कुछ व्याप्ति संबंधों को उत्पन्न कर देती है जिसके कारण एक द्रव्य के परिणाम को देखकर अन्य द्रव्य में हो रहे परिणाम का अनुमान किया जा सकता है । यही एक द्रव्य के परिणाम को अन्य द्रव्य के परिणाम के प्रति निमित्त कहने का रहस्य है । अतः समान्तरवाद वस्तुस्वातन्त्र्य के सिद्धान्त का तार्किक प्रतिफल है ।
स्वभाववाद का उल्लेख तो कुन्दकुन्द स्वयं समयसार गाथा 372 में करते हैं । अतः प्रश्न रहता है कि क्या क्रमनियमितपरिणामवाद भी तर्कतः वस्तुस्वातन्त्र्य से फलित होता है जिसका प्रतिपादन अमृतचन्द्र समयसार 308-11 की टीका में करते हैं । कुन्दकुन्द उपादान कारण की अवधारणा का उपयोग नहीं करते, अन्यथा इस बात को आसानी से कहा जा सकता था। फिर भी, कर्ता-कर्म-संबंध, जिसकी व्याख्या वे करते हैं, के आधार पर भी इस निष्कर्ष को प्राप्त किया जा सकता है । ____पर्यायें क्रमवर्ती होती हैं । परन्तु ये पर्यायें यद्वा-तद्वा रूप से द्रव्य में घटित नहीं हो सकती। ऐसी मान्यता यदृच्छावाद है जो कि कुन्दकुन्द को अभिप्रेत नहीं हो सकती । प्रत्येक द्रव्य अपनी पर्यायों का कर्ता होता है (और पर्यायें उसका कर्म) परन्तु ऐसा नहीं है कि द्रव्य अपनी किसी भी पर्याय को कभी भी उत्पन्न कर दे । विशेष भूमिका/अवस्था/ पर्याय को प्राप्त करके ही द्रव्य विशेषप्रकार से परिणमित हो सकता है । द्रव्य में जिस समय जैसी योग्यता होती है उस समय उसमें वैसा ही परिणाम उत्पन्न होता है । द्रव्य की पूर्ववर्ती अवस्था का नाम ही योग्यता है। अतः पूर्ववर्ती पर्यायविशेष से युक्त द्रव्य में उत्तरवर्ती क्षण में योग्यतानुसार एक नियत पर्याय ही उत्पन्न हो सकती है । अतः कुन्दकुन्द के सिद्धान्तों से यह भी फलित होता है कि प्रत्येक द्रव्य प्रतिक्षण नियमित क्रम से परिणमित हो रहा है।