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आचार्य कुन्दकुन्द निश्चय और व्यवहार
-डॉ० कमलचन्द सोगाणी
विश्व के धार्मिक इतिहास में ऐसे अनेक व्यक्ति हुए हैं जिन्होंने आध्यात्मिक अनुभव को जीवन का चरमोत्कर्ष स्वीकार किया है। ऐसे व्यक्ति किसी देश, जाति, समाज आदि के बंधन से बँधे हुए नहीं हैं। विभिन्न वातावरण, विभिन्न देशकाल, विभिन्न धर्म-सम्प्रदायों में उत्पन्न व्यक्तियों ने एक ही प्रकार के आध्यात्मिक अनुभवों की घोषणा की है। इससे प्रतीत होता है कि आध्यात्मिक अनुभव वैज्ञानिक अनुभव की भाँति मानव-जाति की सम्पत्ति है । इन प्राध्यात्मिक अनुभव करनेवालों को विभिन्न नामों से अभिहित किया गया है । उदाहरणार्थ-योगी, सन्त, तीर्थंकर, केवली, बोधिसत्व, सूफी, शुद्धोपयोगी, अर्हत्, स्थितप्रज्ञ इत्यादि । सभी योगियों-तीर्थंकरों आदि ने उस अनुभव को परामानसिक एवं इन्द्रियातीत घोषित किया है। उसे एक अपूर्व अन्तर्दृष्ट्यात्मक अनुभव कहा गया है। भाषा के द्वारा उसकी अभिव्यक्ति एक समस्या है । मौन के द्वारा ही वह उत्तम रूप से अभिव्यक्त हुआ है । वह अनुभव शान्त एवम् निःशब्द है । पर जब इस अन्तर्दृष्ट्यात्मक आध्यात्मिक अनुभव की अभिव्यक्ति का प्रयास किया जाता है तो हम तुरन्त मानसिक बुद्धयात्मक स्तर पर उतर आते हैं । बुद्धि के द्वारा उसको समझने का प्रयास प्रारम्भ होता है । बुद्धि विश्लेषणात्मक होती है। वह दृष्टियों के माध्यम से अनुभव को पकड़ना एवं अभिव्यक्त करना चाहती है। वह इस अनुभव को दूसरों के लिए बुद्धिगम्य बना देना चाहती है। बौद्धिक स्तर अनुभव को सामाजिक बनाने का प्रयास है। इस प्रयास में अनुभव अपनी मौलिकता खो देता है। फिर भी वह एक अर्थ में सामाजिक बन जाता है। बुद्धि प्रत्ययों के माध्यम से कार्य करती है। इसलिए वह आध्यात्मिक अनुभव के खण्ड-खण्ड कर देती है। पर मानव