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समभाव
सत्तू मित्ते
य
समा
पसंसणिदालद्धिसमा ।
तणकणए समभावा पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥ 47 ॥ बो. पा.
- ऐसा कहा गया है कि संन्यासी का जीवन शत्रु और मित्र में समान होता है,
( उसका ) प्रशंसा और निंदा में, लाभ और अलाभ में, तृण और सुवर्ण में ( भी ) समभाव होता है।
निदाए य पसंसाए दुक्खे य सुहसु य ।
सत्तूणं देव बंधूणं चारितं समभावदो ॥ 72 ।। मो. पा.
— निंदा और प्रशंसा में, दुःखों श्रौर सुखों में तथा शत्रुनों और मित्रों में समभाव रखने से ही चारित्र होता है ।