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कुन्दकुन्द साहित्य में सर्वज्ञ का स्वरूप
-पण्डित रतनचन्द भारिल्ल
धर्म का मूल सर्वज्ञ है । सर्वज्ञ की यथार्थ समझ और श्रद्धा के बिना धर्म का अंकुर उत्पन्न नहीं होता । जिस प्रकार जड़ (मूल) के बिना वृक्ष का अस्तित्व संभव नहीं है, उसी प्रकार सर्वज्ञ की श्रद्धा के बिना धर्मप्राप्ति संभव नहीं है। इसीलिए प्राचार्य समन्तभद्र स्वामी ने सच्चे देव, शास्त्र, गुरु के श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन को ही धर्म का मूल कहा है ।
अध्यात्म के प्रतिष्ठापक प्राचार्य कुन्दकुन्द के हृदय में भी सर्वज्ञ एवं सर्वज्ञस्वभावी आत्मा की अपरिमित महिमा थी। वे आत्मधर्म की प्राप्ति में सर्वज्ञ के यथार्थ ज्ञान व श्रद्धान को आवश्यक मानते थे । उनके प्रमुख पाँचों परमागमों में स्थान-स्थान पर सर्वज्ञ भगवान् को साक्षी के रूप में तो देखा ही जा सकता है, प्रसंगोपान्त सर्वज्ञ के स्वरूप की विस्तृत व्याख्या एवं सर्वज्ञता की सिद्धि करने में भी वे अग्रणी रहे हैं ।
धर्म के मूलभूत कारण सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में अरहंत भगवान् के ज्ञान को आवश्यक बताते हुए वे लिखते हैं
जो अरहंत को द्रव्यपने, गुणपने और पर्यायपने जानता है वह अपने आत्मा को जानता है और उसका मोह अवश्य लय को प्राप्त होता है ।
वे जानते थे कि देव-शास्त्र-गुरु में श्रद्धा रखनेवाले धार्मिक-जन आगम के दबाव से सर्वज्ञ की सत्ता स्वीकार तो कर लेते हैं परन्तु उनमें बहुसंख्यक ऐसे होते हैं जिन्हें हृदय से सर्वज्ञ का यथार्थ स्वरूप स्वीकृत नहीं हो पाता। अतएव उन्हें जहाँ भी अपने प्रतिपाद्य