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जनविद्या
कुन्दकुन्द के समय तक जैन-कथा एवं पुराण-साहित्य के लेखन का प्रारम्भ नहीं हुना था किन्तु उन्होंने आगत-परम्परा के अनुसार कथा-बीजों के संकेत सैद्धान्तिक उदाहरणों के प्रसंग में अवश्य किये हैं जो परवर्ती कथा-साहित्य के लिए स्रोत-सामग्री के प्रमुख आधार बने। ऐसे कथा-बीजों में बाहुबलि, वशिष्ठमुनि, बाहुमुनि, द्वैपायनमुनि, वीरशिवकुमार, शिवभूति, भव्यसेन एवं शालिसिक्थ प्रमुख हैं35 ।
इन कथा-प्रसंगों के मात्र संकेत ही प्राचार्य ने प्रस्तुत किये हैं। आगे चलकर ब्रह्मनेमिदत्त, रामचन्द्र मुमुक्षु एवं हरिषेण आदि कवियों ने इन कथानकों को साहित्यशैली में विस्तार देकर बहुत रोचक बना दिया है ।
साधुओं एवं गृहस्थों में कदाचार के संकेत एवं दण्ड-प्रथा-बहुत सम्भव है कि तत्कालीन गृहस्थों एवं साधुओं में कदाचार को देखकर आचार्य कुन्दकुन्द दुःखी भी हुए हों क्योंकि उन्होंने लिगपाहुड की अनेक गाथाओं में साधुओं को शास्त्रोक्त पद्धति से आचरण करने का आदेश दिया है । उन्होंने राहगीरों पर पड़ी डकैती की भी चर्चा की36 है एवं चोरी-डकैती में पकड़े गए चोरों-डकैतों के पैरों में पड़ी हुई बेड़ी37 का भी उल्लेख किया है। इससे चोरी एवं डकैती होने तथा इस प्रकार के घृणित, समाज-विरोधी कार्य करनेवालों के लिए कठोर दण्ड-व्यवस्था के भी संकेत मिलते हैं।
यह तो आचार्य कुन्दकुन्द के साहित्य में उपलब्ध प्राच्य-भारतीय संस्कृति की झाँकी मात्र है । वस्तुतः कुन्दकुन्द-साहित्य में संस्कृति के विविधरूप इतनी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं कि यदि मधुकरी वृत्ति से उनका संग्रह कर विश्लेषण किया जाय तो एक स्वतन्त्र प्रेरक शोध-प्रबन्ध बन सकता है जो केवल जैन-संस्कृति का ही नहीं अपितु प्राच्यभारतीय इतिहास एवं संस्कृति के लिए भी एक दस्तावेज का कार्य कर सकता है। संक्षेप में तो यही कहा जा सकता है कि प्राचार्य कुन्दकुन्द को केवल जैन-धर्म एवं संस्कृति का प्रतिनिधि प्राचार्य ही नहीं अपितु भारतीय संस्कृति के सर्वांगीण पक्षों को प्रकाशित करनेवाले एक महर्षि योगी लेखक के रूप में भी स्मरण किया जाना चाहिए ।
(1) 1. समयसार, 2. प्रवचनसार, 3. पंचास्तिकाय, 4. नियमसार,
5. रयणसार, 6. बारस अणुवेक्खा, 7. सणपाहुड, 8. सूत्रपाहुड, 9. चारितपाहुड, 10. बोधपाहुड, 11. भावपाहुड, 12. मोक्षपाहुड,
13. लिगपाहुड, 14. सीलपाहुड, 15-24, दसभक्त्यादिसंग्रह । (2) निर्वाणकाण्ड, गाथा 1-18 । (3) रयणसार, 20। (4) मनुस्मृति, 9.2941 (5) कौटिल्य अर्थशास्त्र, 6/11