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जनविद्या
सामाजिक शिक्षा के तत्त्व-प्रारम्भिक शिक्षण के लिए कवि ने बाल्यावस्था को उपयुक्त बतलाया है14 । उन्होंने कहा है कि समाज के बच्चों के लिए प्रारम्भ से ही व्याकरण (भाषा के शुद्ध प्रयोग एवं भाषा-वैज्ञानिक अध्ययन की दृष्टि से), छन्द (पद्यों के वर्ण एवं मात्रा के वैज्ञानिक अध्ययन, सस्वर पाठ एवं उसे सरस और गेय बनाने की दृष्टि से), न्याय (तर्कणा-शक्ति की अभिवृद्धि के लिए), धर्म (जीवन में प्राचार एवं अध्यात्म के वैज्ञानिक जागरण के लिए), दर्शन (विचारों की गहन अनुभूति के लिए) व गणित (राष्ट्रीय एवं सामाजिक व्यवहार के संचालन के लिए) का अध्ययन नितान्त आवश्यक है।
लगता है कुन्दकुन्द के समय में लेखन-सामग्री आज के समान प्रचुर मात्रा में उपलब्ध नहीं थी । स्याही एवं मोरपंख अथवा काष्ठनिर्मित कलम सम्भवतः व्यय-साध्य होने के कारण विशिष्ट कोटि के लेखकों को ही उपलब्ध रहती होगी। किन्तु सामान्यजनों के लिए खड़िया (चॉक) से दीवार अथवा पत्थर पर लिखने की परम्परा थी।
समकालीन दार्शनिक सम्प्रदाय-प्राचार्य कुन्दकुन्द ने अपने वर्णन-प्रसंगों में समकालीन प्रचलित विविध दार्शनिक मतों के उल्लेख किए हैं । उनसे विदित होता है कि उन्होंने उनका भी अध्ययन किया था। उस समय 363 दार्शनिक मत प्रचलित थे16 जिनका वर्गीकरण कुन्दकुन्द ने निम्नप्रकार किया है
1. क्रियावादी 2. प्रक्रियावादी 3. अज्ञानी 4. वैनयिक
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दुःख प्रकार-प्राचार्य कुन्दकुन्द का कथन है-“यह संसार केवल दुःखों का और यह शरीर केवल रोगों का ही घर है । संसार के सभी सुख क्षणिक हैं, इनसे मुक्ति प्राप्त कर शाश्वत-सुख प्राप्त करने का प्रयत्न करो।" ऐसे सांसारिक दुःखों का वर्गीकरण उन्होंने निम्नप्रकार किया है17
1. आगन्तुक (जो दुःख दूसरों के कारण से उत्पन्न हो) । 2. मानसिक (जो पारिवारिक कारणों से उत्पन्न हो)। 3. साहजिक (जो दुःखी प्राणियों को देखकर उत्पन्न हो) ।
4. शारीरिक (वात, पित्त एवं कफ के कुपित हो जाने से उत्पन्न बीमारियों के कारण जो दुःख उत्पन्न हो) ।