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ण भिज्जइ, ण लिप्पड़
जह पत्थरो ण भिज्जइ परिट्ठिओ दोहकालमुदएण ।
तह साहू वि ण भिज्जइ उवसग्गपरीसहेहितो ।। 95॥ -जैसे दीर्घकाल तक जल में पड़ा हुआ पत्थर (जल के द्वारा) टुकड़े-टुकड़े नहीं किया जाता है, वैसे ही साधु भी उपसर्ग-परिषहों के कारण (उनके द्वारा) शिथिल नहीं किया जाता है।
जह सलिलेण ण लिप्पइ कमलिणिपत्तं सहावपयडीए ।
तह भावेण ण लिप्पइ कसायविसएहि सप्पुरिसो॥154॥ -जैसे कमलिनी का पत्ता स्वभाव और प्रकृति के कारण जल से मलिन नहीं किया जाता है वैसे ही सत्पुरुष (सम्यग्दृष्टि मनुष्य) कषायों और विषयों के कारण कुभाव से दूषित नहीं किया जाता है।
-भावपाहुड