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जैनविद्या
संक्षेप में कहा जा सकता है कि अहिंसा आदि व्रतों का धारण करना पुण्य है तथा क्रोध, मान, माया, लोभादि कुकर्म करना पाप है। इन्हीं को शुभ-अशुभ कर्म भी क्रमशः कहा जाता है । चारित्र के क्षेत्र में अशुभ तो त्याज्य ही है, उसके लिए तो कोई स्थान है ही नहीं, पर शुभ ग्रहण करने योग्य है । अध्यात्म में प्रश्न यह है कि क्या निश्चय दृष्टिकोण से शुभ को ग्राह्य कहा जाय ? जब यह प्रश्न उठता है तो आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि 'पुण्य भी एक सोने की बेड़ी है,10' इसका अभिप्राय यह नहीं समझना चाहिये कि शुभ कर्म जीवन में पूर्णतया हेय है। जब तक मनुष्य आत्मानुभव की भूमिका पर अवस्थित नहीं होता तब तक शुभ कर्म उपादेय है। उस भूमिका को प्राप्त करने के पहिले ही यदि शुभ कर्मों को हेय मान लिया जायेगा तो व्यक्ति अशुभ से बचने के लिए किसका सहारा लेगा ? इससे यह भी नहीं समझ लेना चाहिये कि वह शुभ करते-करते शुद्ध को प्राप्त हो जायेगा। शुद्ध भावों की प्राप्ति तो शुद्ध भावों से ही होती है शुभ से नहीं । दूसरे शब्दों में, निर्विकल्प अवस्था की प्राप्ति सविकल्प अवस्था से नहीं हो सकती । सम्भवतया इसी बात को ध्यान में रखकर प्राचार्य कुन्दकुन्द ने कहा-"प्रतिक्रमण, निन्दा आदि विष-कुंभ हैं"11, यदि इस बात को सुन कर कोई आत्मा बिना शुद्ध में स्थित हुए शुभ को छोड़ दे तो ध्यान रहे वह आत्मा अशुभ में चला जायेगा। इसलिये सामान्य जीवों के लिए शुभ ही एकमात्र सहारा है। जहाँ-जहाँ शुभ को व्यवहार कह कर त्याज्य कहा गया है वहाँ-वहाँ निश्चय की अपेक्षा ही ऐसा है।
___ जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार के इस विवेचन के पश्चात् हमें ये देखना है कि अद्वैत वेदन्ति के परमार्थ और व्यवहार का इससे क्या भेद है ? अद्वैत वेदान्त के अनुसार ब्रह्म ही परमार्थरूप से सत्य है, भौतिक तत्त्व व्यावहारिक रूप से सत्य है। इस तरह यहाँ सता के परमार्थ और व्यवहार रूप से भेद हैं। जैनों का व्यवहारनय वस्तुओं की सत्ता को नहीं छूता है। वह तो केवल आत्मा के पतन की ओर संकेत करता है और निश्चयनय उच्चतम अवस्था तक पहुँचने की ओर प्रेरित करता है । जैनदर्शन में सत्ता के विभाग पारमार्थिक और व्यावहारिक रूप से नहीं किये गये हैं। इस तरह से जैनदर्शन के निश्चय और व्यवहार वैसे नहीं हैं जैसे अद्वैत वेदान्त के परमार्थ और व्यवहार हैं । दोनों में मौलिक भेद है।
1. दोण्ह वि णयाण भणिदं जाणदि गवरिं तु समयपडिबद्धो ।
ण दु णयपक्खं गिण्हदि किंचि वि रायपक्खपरिहीणो ।।143।। स. सा. 2. ववहारोऽभूदत्थो भूदत्थो देसिदो दु सुद्धणयो ।
भूदत्थ मस्सिदो खलु सम्मादिट्ठी हवदि जीवो ॥11॥ स. सा... 3. अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसइं ।
जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं ।।49। स. सा.