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जैनविद्या
मान और अपमान, घृणा और प्रेम आदि समाजलक्षी हैं । दूसरे के अस्तित्व के बिना इन द्वन्द्वों की अभिव्यक्ति सम्भव नहीं है । इसलिए कहा गया है कि यह सब व्यवहार है । आत्मा राग-द्वेष रहित है, मान-अपमान रहित है, जो ऐसा कहा गया है कि आत्मापेक्षी दृष्टि है इसलिए निश्चयनय है । मैं यहाँ यह प्रश्न उपस्थित नहीं कर रहा हूँ कि आत्मापेक्षी समाजापेक्षी नहीं हो सकती है । मेरा मानना यह है कि प्रात्मापेक्षी दृष्टिवाला ही शुद्ध सामाजिक दृष्टिवाला हो सकता है । इस बात का अधिक विवेचन करना अप्रासंगिक होगा । निश्चय और व्यवहार के संदर्भ में मैं यही कहना चाहता हूँ कि प्रात्मापेक्षी होना निश्चय है और परापेक्षी होना व्यवहार है । परापेक्षी का अर्थ है राग-द्वेष, शुभ अशुभ तथा शरीर एवं अन्य की दृष्टिवाला होना । उदाहरणार्थ - निश्चयनय से जीव रूप, रस, गन्ध रहित चेतना गुणवाला, किसी चिह्न से ग्रहरण न होने वाला तथा आकाररहित है । किन्तु व्यवहारनय से जीव रूप, रस, गंध वाला, राग-द्वेष का कर्ता, सुख-दुख का भोक्ता तथा स्वदेहपरिमाणवाला है । जीव कर्मों से स्पर्शित है यह व्यवहारनय की दृष्टि है किन्तु जीव कर्मों से अस्पर्शित है यह निश्चयनय की दृष्टि है ।
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उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि निश्चयनयी व्याख्या सार्वभौमिक होती है जबकि व्यवहारनयी व्याख्या सीमित और एकदेशीय होती है । जैन दार्शनिकों ने प्राध्यात्मिक तत्त्वों की व्याख्या के लिए इन दोनों नयों का उपयोग किया है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की व्याख्या इन दोनों नयों की शैली पर की गई है । इसी कारण इन दोनों नयों की व्याख्या सर्वदेशीय और एकदेशीय बन गई है । जैसे सम्यग्दर्शन को लीजिए - निश्चयनय की दृष्टि से आत्मा ही सम्यग्दर्शन है किन्तु व्यवहारनय की दृष्टि से सम्यग्दर्शन की व्याख्या अलग-अलग समयों में अलग-अलग कर दी गई है । कभी कहा गया है:- सात तत्त्वों का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है, कभी कहा गया है- देव, शास्त्र, गुरु का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है । इसी प्रकार निश्चयनय से सम्यक्चारित्र का अभिप्राय है आत्मा में रमण । व्यवहारनय से सम्यक्चारित्र की व्याख्या शुभ - अशुभ भावों पर प्राश्रित होने के कारण परिवर्तनशील है । शुभ-अशुभ भाव पर की अपेक्षा रखते हैं तथा सामाजिक मूल्यों पर उनकी व्याख्या प्राश्रित होती है । सामाजिक मूल्य सार्वकालिक नहीं हो सकते हैं इसलिए व्यवहारनय से सम्यक्चारित्र की व्याख्या भी सार्वकालिक नहीं हो सकती । कभी हमें चारित्र के बाह्यपक्ष को पकड़ना पड़ता है और कभी अन्तर्पक्ष को । इसलिये व्यवहार की व्याख्या भी परिवर्तनशील होती है । निश्चयनय की दृष्टि से सम्यग्ज्ञान का अर्थ है आत्मज्ञान, किन्तु व्यवहारनय की दृष्टि से परवस्तु का ज्ञान सम्यग्ज्ञान है । इस तरह से निश्चयनय परिवर्तनशील व्याख्याओं को स्वीकार न कर अपरिवर्तनशील व्याख्याओं का हामी होता है ।
इतना सब कुछ होते हुए भी व्यवहारनय निश्चयनय की दृष्टि को हृदयंगम करानेवाला होता है । जिन लोगों को निश्चयनय का कथन बुद्धिगम्य नहीं होता और इस कारण वे उस मार्ग का अनुसरण नहीं कर सकते उनके लिए व्यवहारनय उपयोगी होता है । प्राचार्य अमृतचन्द्र (पुरुषार्थसिद्धयुपाय में) कहते हैं कि अज्ञानी जीवों को समझाने के लिए व्यवहारनय