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आचार्य कुन्दकुन्द की ग्रन्थत्रयी के टीकाकार
-डॉ० शुद्धात्मप्रभा
जिन-अध्यात्म के प्रकाण्ड विद्वान् प्राचार्य कुन्दकुन्द जिन-आचार्य-परम्परा में सर्वोपरि हैं । जैन-समाज में आप आज भी भगवान् महावीर और गौतम गणधर के पश्चात् समस्त आचार्य-परम्परा में नामोल्लेखपूर्वक स्मरण किये जाते हैं ।
प्राप द्वितीय श्रुतस्कंध के रचनाकार हैं। इससे पूर्व समस्त प्राचार एवं विचार संबंधी परम्पराएँ श्रुत-परम्परा से चली आ रही थीं। किन्तु श्रुतकेवली भद्रबाहु के समय में हुए द्वादश-वर्षीय दुभिक्ष के कारण आचार-संबंधी परम्पराओं में शिथिलता का प्रादुर्भाव होने लगा। धीरे-धीरे आचरण-संबन्धी भेद के साथ-साथ उनमें वैचारिक भेद भी प्रारंभ होने लगा।
प्राचार्य कुन्दकुन्द के समय में प्राचार-संबंधी शिथिलता में पर्याप्त वृद्धि हो चुकी थी। आहार-विहारादि क्रियानों में कोई मर्यादा नहीं रह गई थी। धार्मिक दृढ़ता का प्रभाव होने लगा था और वैचारिक भेद भी प्रारंभ हो गया था। यह आचार-विचार संबंधी शिथिलता ही संघभेद का कारण थी जो कि धीरे-धीरे मत का रूप लेने लगी थी। अतः ईसा पूर्व प्रथम शती में इस बात की आवश्यकता महसूस होने लगी कि श्रुतकेवली भद्रबाहु की मूल आचार-विचार-परम्परा को कायम रखने के लिए उसे लिपिबद्ध किया जाए । तत्कालीन परिस्थिति को देखकर प्राचार्य कुन्दकुन्द ने न केवल सिद्धान्तों को ही अपितु मुनि-प्राचार में आनेवाली शिथिलता का भी प्रत्येक दृष्टिकोण से विचारकर स्त्रीमुक्ति आदि विचारों का दृढ़ता से निषेध किया ।