Book Title: Jain Vidya 10 11
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 48
________________ 34 जैनविद्या हुए जयसेन ने नवीन प्रमेय प्रस्तुत करने में कोई संकोच नहीं किया है अपितु उनको सहेतुक प्रतिपादित किया है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि मूलग्रन्थकर्ता के विषय को प्राचार्य अमृतचन्द्र ने क्रमबद्ध एवं प्रवाहशील बनाया है तो जयसेन ने प्रत्येक पद की व्याख्या कर उसे सुपाठ्य और सुग्राह्य बनाया है। ___ इस प्रकार हम देखते हैं कि अमृतचन्द्र तो मौलिक विचारक, स्वतंत्र चिंतक और आत्मानुभवी थे ही पर जयसेन भी उनसे कम आत्मार्थी व प्रतिभाशाली नहीं थे। उन्होंने उन सभी तथ्यों को यथास्थान देने का प्रयास किया है जो कि अमृतचन्द्र की लेखनी से अछूते रहे थे । आपने न केवल टीका ही की है अपितु पूर्वापर विरोध का स्पष्टीकरण भी यथास्थान प्रस्तुत किया है। जो शंकाएँ प्रबुद्ध पाठकों के मस्तिष्क में सहज प्रस्फुटित होती थीं उनका सरल-सहज समाधान किया है। इस प्रकार जयसेन की टीकाएँ अमृतचन्द्र की टीकाओं का अनुसरण करती हुई भी मौलिकता लिये हुए हैं । यद्यपि सरल-सुबोध होने पर भी प्राचार्य जयसेन की टीकात्रों को वह महत्त्व और प्रश्रय नहीं मिला जो कि प्राचार्य अमृतचन्द्र की टीकाओं को मिला। इसका एकमात्र कारण यही है कि अमृतचचन्द्र की टीका गंभीर होने से अनेक विद्वानों द्वारा हिन्दी टीका में रूपान्तरित हो गई, किन्तु जयसेन की टीका संस्कृतविज्ञों को सुगत होने से हिन्दी अनुवाद से वंचित रही। अतः वे अमृतचन्द्र की टीकात्रों के समान प्रचार-प्रसार में न पा सकी। ___ जहाँ एक ओर जयसेन की सरलता ही उनके रूप चलन का कारण बनी, वहां वही सरलता उनकी सुरक्षा का सबसे बड़ा कवच रही। यदि आचार्य जयसेन अमृतचन्द्र जैसी ही प्रौढ़ टीकाएँ लिखते तो वे अमृतचन्द्र की टीकाओं के सामने टिक न पाने के कारण संभवतः कालकवलित हो जाती । अतः जयसेन ने सरल, सुबोध भाषा में टीकाएँ लिखकर बहुत बड़ी बुद्धिमानी का काम तो किया ही है, एक कमी की पूर्ति भी की है। प्राचार्य कुन्दकुन्द द्वारा बोये गये जिन-अध्यात्म के बीज को अंकुरित, पुष्पित और फलित करने का श्रेय आचार्य अमृतचन्द्र को ही है । कुन्दकुन्द को जन-जन की वस्तु बनाने में अमृतचन्द्रीय टीकाओं ने सेतु का काम किया है । आचार्य कुन्दकुन्द. आचार्य अमृतचन्द्र एवं प्राचार्य जयसेन जिन-अध्यात्म के क्रमशः सूर्य, चन्द्रमा और तारे हैं जो अध्यात्मप्रेमियों का सदैव मार्गदर्शन करते रहेंगे । 1. (अ) समयसार गाथा 12 की टीका, 13 की टीका । (ब) समयसार गाथा 356 से 365 तक की टीका। 2. समयसार गाथा 15 व 26 की टीका। 3. तात्पर्यवृत्ति, समयसार गाथा 131 की टीका। 4. तात्पर्यवृत्ति, पंचास्तिकाय संग्रह गाथा 2 की टीका के बाद ।

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