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जैनविद्या
अज्ञान का अभाव है क्योंकि वह परभाव तथा परद्रव्य को अपना स्वरूप नहीं समझता और इसलिए उनमें स्वामित्वबुद्धि न होने से राग-द्वेष-मोह भी नहीं करता । वस्तुतः यह तत्त्वदृष्टि की ही महिमा है जिससे सतत आत्मज्ञान की ज्योति प्रकट होती है तथा घातिया कर्मों का नाश होने से अविचल केवलज्ञान सहज ज्योति प्रकाशमान हो जाती है। यथार्थ में जो जैसा होता है वह उसी रूप से प्रकाशित होता है । तत्त्वज्ञान चेतना का सहज परिणाम है, वह सहज पूर्णव्यक्तरूप से प्रकाशित होता रहे-यही मंगल भावना है।
1. बर्टेन्ड रसेल, द प्राब्लेम्स आव फिलासफी, आक्सफोर्ड, पुनर्मुदित 1974 । 2. वही, पृष्ठ 5। 3. कम्मे पोकम्मम्हि य अहमिदि अहकं च कम्म णोकम्मं ।
जा एसा खलु बुद्धी अप्पडिबुद्धो हवदि ताव ।। 19, स. सा. 4. तच्चं तह परमठें दव्वसहावं तहेव परमपरं ।
घेयं सुद्धं परमं एयट्ठा हुंति अभिहाणा ।। 4, नयचक्र । 5. "स्वं तत्त्वं स्वतत्त्वं, स्वभावो साधारणो धर्मः", तत्त्वार्थवार्तिक, 2.1 । 6. दव्वं सहावसिद्ध सदिति जिणा तच्चदो समक्खादो ।
सिद्ध तध आगमदो णेच्छदि जो सो हि परसमग्रो ।। 98, प्र. सा. 7. फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री, जैन तत्त्वमीमांसा, द्वितीय संस्करण, पृ. 31 । 8. दीवानचन्द्र, वेदान्त दर्शन, प्रथम संस्करण, पृ. 56, नागरी प्रचारिणी सभा,
वाराणसी। 9. जो जाणदि सो गाणं ण हवदि णाणेण जाणगो प्रादा।
णाणं परिणमदि सयं अट्ठा णाणट्ठिया सव्वे ।। 35. प्र. सा. 10. परमात्मप्रकाश, 2.34 की टीका । 11. समयसार, गा. 3 की आत्मख्याति टीका।