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जैनविद्या
यद्यपि लगभग सभी भारतीय दार्शनिकों को मुक्ति अथवा सच्चा सुख इष्ट है, किन्तु उनकी व्याख्याएँ भिन्न-भिन्न हैं । सांख्य दर्शन पुरुष के अपने स्वभाव में अवस्थित हो जाने को मोक्ष निरूपित करता है । योग-दर्शन के अनुसार क्लेश के क्षय का नाम कैवल्यबोध की प्राप्ति हैं । कणाद दर्शन में द्रव्य, गुण आदि छह पदार्थों के ज्ञान से मोक्ष-प्राप्ति स्वीकार की गई है । न्याय दर्शन में दुःख के अत्यन्त क्षय को मुक्ति माना गया है । मीमांसा दर्शन में आत्मज्ञान के द्वारा परमानन्द की उपलब्धि को मोक्ष कहा गया है । वेदान्तियों के अनुसार जीव अपने स्वरूप के अज्ञान के कारण दुःखी है, अविद्या के दूर होते ही जीवब्रह्म के एकत्वज्ञान से मुक्ति होती है । उपनिषदों में आत्मा और ब्रह्म में भेद नहीं बताया गया है । अद्वैत वेदान्त में स्वरूप के अपरोक्ष अनुभव को मोक्ष कहा गया है । मध्य-वेदान्त में मुक्तावस्था में जीव अणुपरिमाणयुक्त रहता है, ब्रह्म में उसका विलय नहीं होता । गीता के अनुसार समत्वबुद्धि से युक्त हा पुरुष कर्म-बन्धन से मुक्त हो जाता है। इस प्रकार सभी क्लेश, अविद्या और कर्म-बन्धन से छुटकारे को शिव-सुख की प्राप्ति का उपाय बताते हैं, किन्तु तत्त्वज्ञान के बिना सच्चा सुख कदापि प्राप्त नहीं हो सकता ।
यद्यपि आचार्य उमास्वामी ने तत्त्व सात बतलाये हैं—जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष । तत्त्व तो अनन्त हैं किन्तु ये सात तत्त्व प्रयोजनभूत तत्त्व हैं । इन को बतलाने का प्रयोजन जीव-अजीव की पहचान कराना है । पहचानना तो निज शुद्धात्मा को है किन्तु अनादि काल से निज चेतन को भूला हुआ जीव परपदार्थों तथा परभावों को अपना मान कर उन में अपनत्व बुद्धि करता आया है-यही दुःख का कारण है । तत्त्वज्ञान की हमें इसलिए आवश्यकता है कि वह हम को हमारा वास्तविक स्वरूप बतलाता है । हम सिंह की भांति ज्ञानस्वभावी, निर्भय, आनन्द की मस्ती में विचरण करनेवाले हैं किन्तु सियाररूपी परसंगों में निजत्व बुद्धि करके अपने आप को भूल कर अपने को सियार, दीन-हीन समझ रहे हैं । तत्त्वज्ञान इस दीन-हीन भावना को सदा के लिए दूर ' भगाने का अमोघ उपाय है । तत्त्वज्ञान से ही हमें अपनी भूल का पता लगता है, साथ ही विश्व के समस्त ज्ञेयों में तथा जीवादि तत्त्वों में हेय-उपादेय का ज्ञान होता है।
आगम में हेय-उपादेय दोनों प्रकार के तत्त्वों का वर्णन है किन्तु अध्यात्म में एकमात्र उपादेय प्रात्मभूत तत्त्व का ही वर्णन किया गया है । जिस प्रकार प्रत्येक राष्ट्र में राष्टीय सरकार के आदेश से उसकी मद्रा चलती है उसी प्रकार जिन-शासन में परमात्मा के आदेश से अध्यात्म का सिक्का चलता है क्योंकि अध्यात्म में आत्मा का ही अधिकार सर्वत्र लक्षित होता है । पण्डितश्री बनारसीदासजी के शब्दों में-“वस्तु का जो स्वभाव उसे आगम कहते हैं, आत्मा का जो अधिकार उसे अध्यात्म कहते हैं । मिथ्यादृष्टि जीव न आगमी, न अध्यात्मी । क्यों ? इसलिए कि कथनमात्र तो ग्रन्थपाठ के बल से आगम-अध्यात्म का स्वरूप उपदेश मात्र कहता है, आगम-अध्यात्म का स्वरूप सम्यक् प्रकार से नहीं जानता, इसलिए मूढ जीव न आगमी, न अध्यात्मी, निर्वेदकत्वात् ।" ।
हम देखें कि इन दोनों में से हमारी स्थिति क्या है ? कहीं तोते की भांति हम भी जैन आगम, जैन अध्यात्म का पाठ तो नहीं रट रहे हैं ?