________________
कुन्दकुन्द - साहित्य का साहित्यिक मूल्यांकन
- डॉ० राजाराम जैन
काव्य-सौष्ठव
आचार्य कुन्दकुन्द को केवल अध्यात्मी सन्त कवि मानकर उनके विराट् व्यक्तित्व को सीमित करना उपयुक्त नहीं । वे निश्चय ही योगी सिद्ध महापुरुष तो थे ही किन्तु इसके अतिरिक्त वे एक महान् भाषाविद्, साहित्यकार एवं भारतीय संस्कृति के प्रामाणिक विद्वान् भी थे ।
भाषा-वैज्ञानिकों ने उनके साहित्य की भाषा को जैन-शौरसेनी माना है । शौरसेनी ( अथवा नाटकीय शौरसेनी) एवं जैन- शौरसेनी में वही अन्तर है जो वैदिक एवं लौकिक संस्कृत में, मागधी एवं अर्धमागधी प्राकृत में, महाराष्ट्री एवं जैन महाराष्ट्री प्राकृत में, अपभ्रंश एवं अवहट्ठ-अपभ्रंश में तथा हिन्दी एवं हिन्दुस्तानी में अन्तर है ।
यहाँ विषय विस्तार के भय से सामान्य भाषा-भेद पर अधिक विचार न कर केवल इतनी जानकारी दे देना ही पर्याप्त है कि भाषा वैज्ञानिकों ने प्राकृत भाषा के तीन प्रमुख स्तर माने हैं— ( 1 ) मागधी, ( 2 ) अर्धमागधी एवं ( 3 ) शौरसेनी । कुन्दकुन्द की भाषा की मूल प्रवृत्ति शौरसेनी होने पर भी वह प्राच्य अर्धमागधी से अधिक प्रभावित है। जैनेतर संस्कृत नाटकों की शौरसेनी से कुन्दकुन्द की शौरसेनी अधिक प्राचीन है । महाकवि दण्डी के अनुसार प्राकृत ( अर्थात् शौरसेनी प्राकृत ) ने महाराष्ट्र- प्रदेश में प्रवेश पाने पर जो रूप धारण किया वही उत्कृष्ट महाराष्ट्री प्राकृत के नाम से प्रसिद्ध 'हुई | आगे चलकर अर्धमागधी आगम साहित्य में भी उस महाराष्ट्री प्राकृत की कुछ प्रवृत्तियों का प्रवेश हो