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जैनविद्या
(प्र० सा० 251) (पंचास्ति० 88) (प्र० सा० 149)
कुव्वदुः< करोतु करेदि< करोति
कुणदि < करोति महाराष्ट्री के समान
कुणइ<करोति करेइ<करोति
(मोक्षपाहुड 42)
(रयण० 96)
(7) (क) क्त्वा प्रत्यय के स्थान में महाराष्ट्री एवं शौरसेनी के समान 'ता'
प्रत्यय । यथावंदित्ता < वन्दित्वा
(बोधपाहुड 1) . (ख) क्त्वा प्रत्यय के स्थान में 'य' । यथा भवीय<भूत्वा
(प्र० सा० 151) गहीय< गृहीत्वा किच्चा कृत्वा
(प्र० सा० 82) (ग) शौरसेनी एवं महाराष्ट्री के 'दूण' एवं 'ऊण' प्रत्ययों के प्रयोगों का
पाया जाना । यथाशौरसेनी प्रयोग-सुणिदूण < श्रुत्वा (प्र० सा० 162) महाराष्ट्री प्रयोग-काऊण <कृत्वा (दर्शनापाहुड 11)
अलंकार-प्रयोग
यह सत्य है कि प्राचार्य कुन्दकुन्द अलंकारशास्त्री नहीं थे और न वे वर्ण्य-विषय को अलंकारों की जबर्दस्त लूंस-ठाँस से जटिल एवं बोझिल बनाना चाहते थे। फिर भी उनकी कृतियों में उपमा, रूपक, अप्रस्तुत प्रशंसा, उदाहरण आदि अलंकार मिलते हैं जो सहज-स्वाभाविक रूप में प्रयुक्त हैं, प्रयत्न-साध्य नहीं।
उपमालंकार
प्रवचनसार के शुभोपयोग वर्णन-प्रसंग में देखिए उपमालंकार का कितना सुन्दर एवं स्वाभाविक प्रयोग हुआ है -
कुलिसाउह चक्कधरा सुहोवप्रोगप्पगेहि मोगेहि । देहादीणं विद्धि करेंति सुहिदा इवाभिरदा ॥1.73॥
और भी
पुरिसेण वि सहियाए कुसमयमूढेहि विसयलोलेहिं । संसारे मविदव्वं अरयघरटं व भूहि ॥ 26 शी० पा०