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जैनविद्या
___ द्रव्य के मूल भेद दो हैं-जीव और अजीव । चैतन्य उपयोगमय द्रव्य को जीवद्रव्य कहते हैं और अचेतन जड़ द्रव्यों को अजीव कहते हैं । यथा
दव्वं जीवमजीवं जीवो पुरण चेदणोपयोगमयो ।
पोग्गलदव्वप्पमुहं अचेदणं हवदि य अजीवं ।। 2.35 प्र. सा. गुणों के भेद से ही द्रव्यों में भेद होता है। गुण ही द्रव्य के लिंग अथवा चिह्न हैं । गुणों से ही द्रव्य का स्वरूप जाना जाता है। गुण दो प्रकार के हैं-मूर्तिक और अमूर्तिक । मूर्तिक द्रव्य के गुण मूर्तिक और अमूर्तिक द्रव्यों के गुण अमूर्तिक होते हैं । मूर्तिक द्रव्य केवल एक है उसे पुद्गल कहते हैं और जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल, ये पाँच द्रव्य अमूर्तिक हैं । यथा
लिगेहि जेहिं दव्वं जीवमजीवं च हवदि विण्णादं ।
ते तम्भावविसिट्ठा मुत्तामुत्ता गुणा गया । 2.38 प्र. सा. प्रवचनसार (2.55) तथा पंचास्तिकाय (30) में जीव शब्द की व्युत्पत्ति के द्वारा उसका स्वरूप बतलाते हुए लिखा है-"जो बल, इन्द्रिय, आयु और श्वासोच्छवास इन चार प्राणों से वर्तमान काल में जीता है, भूतकाल में जिया था और भविष्यकाल में जियेगा वह जीव है ।" 'पंचास्तिकाय' (27) में आचार्यश्री ने उस जीव को चेतयिता, उपयोगविशिष्ट, प्रभु-कर्ता, भोक्ता, शरीरप्रमाण, अमूर्तिक किन्तु कर्म से संयुक्त बतलाया है । जीव दो प्रकार के हैं-संसारी और मुक्त । दोनों ही प्रकार के जीव चेतनात्मक और उपयोग लक्षणवाले होते हैं किन्तु संसारी शरीरसहित होते हैं और मुक्त शरीररहित होते हैं । पृथ्वीकायिक आदि एकेन्द्रिय, शंख आदि द्वीन्द्रिय, यूका आदि त्रीन्द्रिय, डांस आदि चतुरिन्द्रिय और मनुष्य आदि पंचेन्द्रिय ये संसारी जीव के भेद हैं। ये भेद इन्द्रिय की अपेक्षा से हैं । चार प्रकार के देव, कर्मभूमिज और भोगभूमिज मनुष्य, बहुत तरह के तिर्यञ्च तथा नारकी, ये गति की अपेक्षा संसारी जीवों के भेद हैं ।
प्राचार्य कुन्दकुन्द ने द्रव्य, गुण और पर्यायों को अर्थ कहा है । 'प्रवचनसार' (21) में अर्थ को द्रव्यमय और द्रव्य को गुणपर्यायमय बतलाकर द्रव्य, गुण और पर्याय को अर्थ क्यों कहा है इसको स्पष्ट किया है किन्तु 'पंचास्तिकाय' (198) में जीव, अजीव, पुण्य-पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष को अर्थ कहा है। 'नियमसार' (9) में नाना गुणपर्यायों से संयुक्त जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाश को तत्त्वार्थ कहा है । 'दर्शनप्राभृत' (19) में छहद्रव्य, नौपदार्थ, पाँच अस्तिकाय और सात तत्त्वों के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा है। इसका अभिप्राय यह हुआ कि अर्थ, पदार्थ और तत्त्वार्थ एकार्थक हैं फिर भी उनमें दृष्टिभेद है । जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये छह द्रव्य कहे जाते हैं, इनमें से काल को पृथक् कर देने से शेष पाँच को अस्तिकाय कहते हैं । इसी तरह जीव, अजीव, पुण्य, पाप, प्रास्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष ये नौ पदार्थ कहे जाते हैं । इनमें से पुण्य और पाप को पृथक् कर देने से शेष सात तत्त्व कहे जाते हैं । इन्हीं के यथार्थ श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं। सम्यग्दर्शन ही मोक्ष का