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जैनविद्या
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भगवान् सब पदार्थों को जानते और देखते हैं किन्तु उनका वह जानना असत्य नहीं है । फिर भी वह उनका ज्ञायकभाव आत्मनिष्ठ ही है । उक्त व्यवहार और निश्चय की कथनी का यही मथितार्थ है । प्राचार्य कुन्दकुन्द कृत 'समयसार' और 'नियमसार' में निश्चयव्यवहार की मुख्यता है तथा 'प्रवचनसार' और 'पंचास्तिकाय' में द्रव्याथिक-पर्यायाथिकनय की मुख्यता है।
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र की एकरूपता ही मोक्षमार्ग है। इन त्रय को कुन्दकुन्द ने इस प्रकार परिभाषित किया है
सम्मत्तं सद्दहणं भावाणं तेसिमधिगमो णाणं ।
चारित्तं समभावो विसयेसु विरूढमग्गाणं ॥ 107 पंचास्तिकाय -भावों (पदार्थों) का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है और उनका ज्ञान सम्यग्ज्ञान है तथा पंचेन्द्रिय के विषयों के प्रति वर्तता हुमा समभाव और आत्मा में प्रारूढभाव सम्यग्चारित्र है । यही सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रमय मोक्षमार्ग प्राचार्य कुन्दकुन्द के ग्रंथों का मूल प्रतिपाद्य है । 'नियमसार' का प्रारम्भिक कथन द्रष्टव्य है
मग्गो मग्गफलं तिय, दुविहं जिरणसासणे समक्खादं ।
मग्गो मोक्खउवामो तस्स फलं होइ रिणवारणं ॥ 2 ॥ -अर्थात् जिनशासन में मार्ग और मार्गफल-ऐसे दो प्रकार का कथन किया गया है । मार्ग मोक्ष का उपाय है और निर्वाण उसका फल है ।
प्राचार्य कुन्दकुन्द का चिन्तन-दर्शन स्पष्ट है कि प्रात्मज्ञान के बिना परमतत्त्व की प्राप्ति असम्भव है । आत्मज्ञान स्वात्मानुभूति का विषय है। स्वात्मानुभूति सम्यग्दृष्टि से सम्भव है । सम्यग्दृष्टि होने के लिए प्राचार-विचारों में निर्मलता और प्रात्मतत्त्व में अभिरुचि अपेक्षित है। धर्मविषयक मान्यता के सम्बन्ध में प्राचार्य कुन्दकुन्द की दृष्टि बहुत गहरी और सुलझी हुई परिलक्षित होती है। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में चारित्र को धर्म स्वीकारा है। धर्म प्राणिमात्र को जीना सिखाता है। श्रावक का लक्ष्य धर्म को अपने जीवन में उतारना है । श्रावक का प्रादर्श श्रमण का जीवन है। विषय-कषायों का परिहार ही श्रमण और श्रावक की मुख्य ईप्सा होनी चाहिए। कर्म करते समय व्यक्ति के परिणामों में कषाय अर्थात् क्रोध, मान, माया, लोभ आदि की मन्दता होनी चाहिए । शुद्ध आत्मानुभूति की ओर सतत सर्वदा लक्ष्य रखना चाहिए तथा परिणामों की विशुद्धता के साथ मोही, रागी, अज्ञानी जीवों तथा उनकी अशुद्ध व्यावहारिक क्रियाओं को देखकर उनकी उपेक्षा तथा निन्दा नहीं करनी चाहिए। प्रात्मज्ञान हो जाने पर सदा विशुद्ध अखण्ड परमात्मा की स्वसंवेदनात्मक अनुभूति में लीन रहना चाहिए। इनका विस्तार से वर्णन कुन्दकुन्दाचार्य की रचनाओं में दृष्टिगत है ।
प्राचार्य कुन्दकुन्द की रचनाओं में लोक-कल्याण की भावना स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है । आचार्यश्री का कहना है कि जितने वचन-पंथ है उतने नयवाद हैं और