________________
16
जैनविद्या
वस्तु ही है । बिना भाव और बिना आकार के कोई वस्तु नहीं होती किन्तु चैतन्य द्रव्य के चेतन भाव ही होते हैं. अचेतन भाव चैतन्य के कार्य नहीं है । गन्ध, रस, स्पर्श, रूप, शरीर, संस्थान, संहनन आदि पुद्गलमय नामकर्म की रचना होने से पुद्गल से अभिन्न है । पौद्गलिक किंवा जड़ या भौतिक विश्व भिन्न है और चैतन्य जगत् सर्वथा भिन्न है ।
आचार्य कुन्दकुन्द की सबसे बड़ी देन है-तत्त्वज्ञान । वस्तु के स्वरूप का ज्ञान कराने के लिए गुण, पर्याय से युक्त वस्तु जो प्रमाण का विषय है, गुणों का समूह द्रव्य जो द्रव्यार्थिक नय का विषय है और पर्यायनिरपेक्ष द्रव्य जो शुद्धनय का विषय है-इन सभी से और मुख्यरूप से शुद्धनय की दृष्टि से 'समयसार' का निरूपण किया गया है । वास्तव में 'सम्यग्दर्शन' को समझाने के लिए 'समयसार' जैसे महान् ग्रन्थ की रचना कर प्राचार्य कुन्दकुन्द ने उत्कृष्ट शोधप्रबन्ध (थीसिस) भव्य जीवों को प्रदान किया है, जिसकी जोड़ का आज भी विश्व में कोई शास्त्र उपलब्ध नहीं है । यह सुनिश्चित है कि जो सम्यग्दर्शन को प्राप्त करना चाहता है उसे 'समयसार' समझना अनिवार्य है । 'समयसार' को समझे बिना ज्ञान की आँख नहीं खुल सकती । उनकी इस महान देन से विश्व का वाङ्मय सदा उपकृत रहेगा । यद्यपि प्राचार्य कुन्दकुन्द के पहले और बाद में भी इस देश में अनेक . प्राचार्य, योगी, सन्त हुए लेकिन उन जैसे रचनाकार दुर्लभ हैं ।
प्रतिदिन हम अनेक वस्तुओं को देखते हैं । सुबह से शाम तक विभिन्न पदार्थों के सम्पर्क में आते रहते हैं । उनकी चमक-दमक, रूप-रंग, बनावट आदि की ओर भी हमारा ध्यान जाता है । किन्तु हम उनके सम्बन्ध में जो भी जानते हैं वह या तो विरोधाभासमूलक • होता है अथवा विपर्यय, मिथ्या होता है । बर्टेन्ड रसेल के शब्दों में-"मेरा विश्वास है कि
सूर्य धरती से 93 लाख मील की दूरी पर है । यह गर्म भूमण्डल (ग्लोब) है जो इस पृथ्वी से कई गुना बड़ा है । सूर्य पृथ्वी के चारों ओर घूमता रहता है । वह प्रत्येक सुबह उदित होता है और भविष्य में अनिश्चित काल तक उदय होता रहेगा।" यद्यपि सूर्योदय के समय सूर्य को जो भी देखेगा उसे सूर्य का लाल गोला ही दिखलाई पड़ेगा किन्तु वास्तव में सूर्य क्या है ? इससे हम अनजान हैं । हमारा तुरन्त का अनुभव गलत भी हो सकता है । हम जिन पदार्थों को देखते-जानते हैं वे सभी हमारे अनुभव-बोध में जैसे प्रतीत होते है वैसे ही हम उनका ज्ञान करते हैं । हम जिस कुर्सी पर बैठे हुए हैं उसका रूप-रंग देख कर, हल्की-भारी, चिकनी-खुरदरी छू कर और प्रत्यय-बोध की धारणा में जैसी पहले आ चुकी है उसी के अनुसार जानते हैं । वास्तव में कुर्सी क्या है ? क्या हम इसे जानते हैं ? क्या वास्तविक कुर्सी का अस्तित्व है ? यदि है तो वह भौतिक पदार्थ ही है । हमारी संवेदनशील प्रज्ञा में 'कुर्सी' का समाहितरूप उबुद्ध होता है । पदार्थ का बाहरी अस्तित्व तो हमारी दृष्टि में आता है किन्तु वास्तव में पदार्थ अनुभूतिगम्य होता है । प्रतीत होनेवाला पदार्थ प्रत्येक समय में परिवर्तित होता रहता है । जो बदल रहा है, प्रत्येक क्षण में जो नये सौन्दर्य को धारण कर रहा है और क्षण भर के पश्चात् जो रहनेवाला नहीं है, वह पदार्थ नहीं है क्योंकि पदार्थ ध्रुव है, नित्य है, त्रैकालिक है । हमारे अनुभव में आनेवाले पदार्थों में से कोई भी बिल्कुल नया नहीं है । उसे हम कभी न कभी देख चुके हैं, जान चुके हैं और अनुभव