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आचार्य कुन्दकुन्द की देन
- डॉ० देवेन्द्रकुमार शास्त्री
जगत्, जीव और पदार्थ का अन्वेषण, शोध अनुसन्धान करनेवाले आज तक जितने ज्ञानी, वैज्ञानिक, चिन्तक या दार्शनिक हुए हैं उन सबकी पहुँच भिन्न-भिन्न प्रतीत होती हैं । इसलिए उन सबके मत भिन्न-भिन्न हैं । वास्तव में यथार्थज्ञानियों का एक ही मत होता है क्योंकि उनकी दृष्टि, ज्ञान और प्रवृत्ति में कोई भिन्नता नहीं होती । श्रनन्तज्ञानियों का श्रद्धान, ज्ञान और प्राचरण सदा समान लक्षित होता है किन्तु ज्ञानियों की रुचि, समझ और आचरण में सदा अन्तर बना रहता है, विभिन्नता परिलक्षित होती है । इस भिन्नता का कारण अल्पज्ञानियों की समझ की विपरीतता है । दुःखी जीव सदा से परभावों में, परवस्तुनों में सुख मानता, खोजता प्राया है लेकिन स्वयं श्रानन्द का निधान, सुख का खजाना है - ऐसा उसने श्राज तक नहीं समझा है । यदि हम अपने में सुख की कल्पना कर लें तब तो सुखी हो सकते हैं, नहीं कल्पना तो जल्पना ही है । वास्तव में हमें कल्पनाविकल्पना में नहीं उलझना है, वस्तु जो जैसी है उसके निज स्वभाव से उसे वैसा स्वीकार करना है ।
जैनदर्शन वस्तुवादी दर्शन है । जिसमें अनन्त गुण बसते हैं उसे वस्तु कहते हैं । वस्तु स्वभाव से सामान्य और विशेष से परिपूर्ण है । वस्तुतः चैतन्य मात्र जीव ही ध्रुव है । वस्तु में प्रत्येक समय होनेवाला परिणमन स्थायी नहीं है । जो अस्थायी है, अनित्य है, उससे कभी भी वस्तु को नहीं समझा जा सकता क्योंकि निज रस से प्रकट होनेवाली वस्तु सदाकाल एक रूप ही रहती है । जिस वस्तु से जो भाव निष्पन्न होता है वह भाव वह