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जैनविद्या
मूल कारण है । अतः कुन्दकुन्द ने अपने 'समयसार', 'पंचास्तिकाय', 'नियमसार' और 'प्रवचनसार' में तत्त्वों, पदार्थों और द्रव्यों का ही विशेषरूप से कथन किया है।
कुन्दकुन्दाचार्य की व्याख्यान शैली व्यवहारनय और निश्चयनय पर आश्रित है । 'समयप्राभृत' में वे लिखते हैं
ववहारोऽभूदत्थो भूदत्यो देसिदो दु सुद्धरणो ।
भूदत्य मस्सिदो खलु सम्माविट्ठी हवदि जीवो ॥ 11 ॥ -अर्थात् समय में व्यवहारनय को अभूतार्थ और शुद्धनय को भूतार्थ बतलाया है । इनमें से भूतार्थ का आश्रय करनेवाला जीव सम्यग्दृष्टि है।
· कुन्दकुन्दाचार्य ने अभूतार्थ और भूतार्थ की मर्यादा का स्वयं निर्देश नहीं किया फिर भी उनकी व्याख्यान शैली से इसका पता लग जाता है। पंडित फूलचन्द जैन सिद्धान्तशास्त्री 'सर्वज्ञता के अतीत इतिहास की एक झलक' निबन्ध में कुन्दकुन्द की व्याख्यान शैली में निम्न बातों को अपनाये जाने की बात कहते हैं1. जीव और देह एक है, यह व्यवहारनय है । जीव और देह एक नहीं किन्तु
पृथक्-पृथक् हैं यह निश्चयनय है । (समयप्राभृत 32) 2. वर्णादिक जीव के हैं, यह व्यवहारनय है तथा ये जीव के नहीं हैं, यह
निश्चयनय है । (समयप्राभृत 61) 3. रागादिक जीव के हैं, यह व्यवहारनय है और ये जीव के नहीं है, यह
निश्चयनय है । (समयप्राभृत 51) ____4. क्षायिक आदि भाव जीव के हैं, यह व्यवहारनय है किन्तु शुद्ध जीव के न क्षायिक भाव होते हैं और न अन्य कोई भाव यह निश्चयनय है ।
(नियमसार 41) 5. केवली भगवान् सबको जानते और देखते हैं, यह व्यवहारनय है किन्तु
___ अपने आपको जानते और देखते हैं, यह निश्चयनय है । (नियमसार 158) 6. शरीर जीव का है ऐसा मानना व्यवहार है और शरीर जीव से भिन्न है
ऐसा मानना निश्चय है । (समयप्राभृत 55) उक्त छह तथ्यपूर्ण बातों से व्यवहारनय और निश्चयनय की कथनी पर पर्याप्त प्रकाश पड़ जाता है।
प्राचार्य कुन्दकुन्द ने जो व्यवहार को अभूतार्थ कहा है वह व्यवहार की अपेक्षा नहीं किन्तु निश्चय की अपेक्षा से कहा है। व्यवहार अपने अर्थ में उतना ही सत्य है जितना कि निश्चय । जिस प्रकार हम विविध पदार्थों को जानते हैं किन्तु हमारा वह सब जानना झूठा नहीं है फिर भी वह ज्ञान ज्ञानस्वरूप ही रहता है। उसी प्रकार केवली