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जनविद्या
है । 'प्रवचनसार' का वस्तुनिरूपण अवश्य ही तर्कप्रधान शैली को लिये हुए है तथापि दुरूह नहीं है । जहाँ 'समयसार' से प्राचार्य कुन्दकुन्द के सांख्यदर्शन और उपनिषद् विषयक पाण्डित्य का पता चलता है वहाँ 'प्रवचनसार' से ज्ञात होता है कि कुन्दकुन्द न्यायवैशेषिक दर्शन के भी पण्डित थे। बौद्धों के विज्ञानाद्वैतवाद तथा शून्यवाद से भी वे अपरिचित नहीं दीखते । इस स्व-पर समयज्ञता के कारण ही प्राचार्य कुन्दकुन्द जैन तत्त्वज्ञान का परिमित शब्दों के द्वारा परिमार्जित शैली में निरूपण कर सके जो परवर्ती प्राचार्यों के लिए आधारशिला बना। श्री गोपालदास जीवाभाई पटेल 'कुन्दकुन्दाचार्य के तीन रत्न', पृष्ठ 18 पर प्राचार्यश्री के अभिव्यञ्जना-कौशल के लिए शब्दार्घ अर्पण करते हैं-"कहीं प्रात्मा का वास्तविक स्वरूप, कहीं कर्मबन्धन का स्वरूप. कहीं कर्मबन्धन को रोकने का उपाय इस प्रकार महत्त्वपूर्ण विषयों पर वे अपना हृदय निःसंकोचभाव से खोलते जाते हैं । किसी-किसी जगह तो ऐसा प्रतीत होने लगता है कि लेखक बुद्धि से परे की अनुभव की कहानी कह रहे हैं ।" यहाँ प्रस्तुत आलेख में जैनदर्शन के प्रकृष्ट और विशिष्ट व्याख्याता कुन्दकुन्दाचार्य के विचारों का विवेचन प्रस्तुत करना हमें अभीप्सित है।
आत्मा को आधार मानकर जो चिन्तन और आचरण किया जाता है उसे अध्यात्म कहते हैं। कुन्दकुन्द-साहित्य में आध्यात्मिक जिज्ञासा और विचारणा के अभिदर्शन विविध रूपों में होते हैं। प्राचार्यश्री 'मोक्षपाहुड' में आत्मा के तीन स्वरूपों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि आत्मा के तीन प्रकार हैं-अंतरात्मा, बहिरात्मा और परमात्मा । अन्तरात्मा के उपाय से बहिरात्मा का परित्याग कर परमात्मा का ध्यान करना अपेक्षित है । यथा
तिपयारो सो अप्पा परमंतरबाहिरो दु हेऊणं ।
तत्थ परो झाइज्जइ, अंतोवाएण घएहि बहिरप्पा ॥ 4, मो. पा. - तीनों के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए प्राचार्य कुन्दकुन्द का कहना है कि इन्द्रियों के स्पर्शनादि के द्वारा विषयज्ञान करानेवाला बहिरात्मा होता है । इन्द्रियों से परे मन के द्वारा देखनेवाला, जाननेवाला 'मैं हूँ' ऐसा स्व-संवेदन-गोचर संकल्प अन्तरात्मा है और द्रव्यकर्म अर्थात् ज्ञानावरणादि, भावकर्म अर्थात् रागद्वेषमोहादि, नोकर्म अर्थात् शरीर आदि मलरहित अनंतज्ञानादि गुणसहित परमात्मा है । यथा
अक्खाणि बहिरप्पा अन्तरप्पा हु अप्पसंकप्पो । कम्मकलंकविमुक्को परमप्पा भण्णए देवो ॥ 5, मो. पा.
आत्मा और परमात्मा में कोई तात्त्विक भेद नहीं है । बाह्यावरण या पुद्गल के संयोग के ही कारण आत्मा अपने स्वरूप से अनभिज्ञ हो जाता है दोनों में केवल पर्यायभेद होता है । अतएव प्रत्येक प्रात्मा कर्मादि से मुक्त होकर उसी प्रकार परमात्मा बन सकता है जिस प्रकार सुवर्ण-पाषाण शोधनसामग्री द्वारा स्वर्ण शुद्ध बन जाता है । यथा