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तर्क काविचार
_ भिन्न भिन्न दर्शनके आचार्यों ने तत्त्वों का जो स्वरूप प्रकाशित किया है उसमें भेद है । इस भेद के कारण स्तिक सम्प्रदायों के तक शास्त्रों में प्रमाणों के स्वरूप को युक्त सिद्ध करने के लिये गंभीर विचार किया गया है इस विचार के कारण तर्क प्रधान ग्रन्थों की रचना हुई। जन तर्ककी विशिष्टता--
ध्यान रहे-जेनेतर तार्किक एकांतवादी हैं और जैन अनेकान्त को स्वीकार करते हैं। इस मूलभूत भेदके कारण जैनों का तत्त्वज्ञान अन्य सम्प्रदायों के तत्त्वज्ञान से भिन्न हो गया। वस्तु के अनेकान्त स्वरूप को मूल में रखकर जैनों ने विचार किया है इसलिये उन्होंने अन्य मतों का सर्वथा निषेध नहीं किया । वस्तु का जो स्वरूप अन्य मतके आचार्यों ने प्रकाशित किया है उसको भी उन्होंने किसी अपेक्षा से उचित कहा है । अपेक्षा के भेद से वस्तु के अनेक धर्मात्मक स्वरूप को प्रकाशित करना अनेकान्तका प्रधान स्वरूप है। अनेकान्त म्वरूप को प्रकाशित करने के कारण जैन विद्वानों के तर्क पक्षपात अथवा हठ से रहित हो गये हैं। इस वस्तु को याकिनीमहत्तरासूनु १४४४ ग्रंथरत्नों के रचयिता सूरिपुरंदर प्राचीन आचार्यदेव श्रीमद्धरिभद्रसूरीश्वरजी ने निम्न शब्दों में कहा है--
पक्षपातो न मे वीरे-न द्वषः कपिलदिषु । युक्तिमद्वचनं यस्य-तस्य कार्यः परिग्रहः॥