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भूमिका
मुनि रत्नभूषण विजय और मुनि हेमभूषण विजय
यह संसार अनादि काल से चला आ रहा है और अनंत काल तक चलता रहेगा । इस अनादि अनंत संसार में समस्त जीव चार गतियों में परिभ्रमण करते रहते हैं और अपने किये हुए कर्म के अनुसार सुख-दुःख भोगते हैं । अनंत उपकारी श्री तीर्थंकर देव अपने चरम भवमें सब सांसारिक सुख का त्याग कर के संयम धारण करते हैं । इसके अनन्तर घोर तपस्या करते हुए अनेक प्रकार के उपसर्गों और परिबहों को समभाव से सहते हैं । धर्मध्यान और शुक्लध्यान से भावित होकर चार घातिकर्मों का क्षय करते हैं और केवलज्ञान को प्राप्त करते हैं । इसके अनन्तर देव रचित समवसरण में विराजमान होकर समस्त जीवों के उद्धार के लिये धर्म तीर्थ की स्थापना करते हैं और धर्मोपदेश देते हैं । उनके उपदेश को सुनकर भव्य जीव संयम के अभिलाषी बनते हैं और प्रव्रज्या को प्राप्त करते हैं इन सयमी जीवों में जो विशिष्ट योग्यता से संपन्न होते हैं उनको भगवान तीर्थकर गणधर पद पर प्रतिष्ठित करते हैं गणधरों के उत्तर में भगवान ' उप्पेर वा विगमेइ वा धुबेइ वा" इस त्रिपदी का उच्चारण करते हैं त्रिपदीका आश्रय लेकर भगवान गणधरदेव द्वादशांगी की रचना करते हैं इसलिये जैन शास्त्रों में द्वादशांगो मुख्य रूप से प्रमाणभूत मानी जाती है ।
चेतन और अचेतन तत्त्वों के विषय में गंभीर विचार भारत में चिरकाल से चले आ रहे हैं। विचारक अनेक प्रकार