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जन पूजा पाठ साह
शीतल समकित किरणें फटें, संवर से जागे अन्त-बल ।। फिर तप की शोधक वह्नि जगे, कर्मों की कड़ियाँ टूट पड़े, सर्वाङ्ग निजाल प्रदेशों से, अमृत के निर्भर फूट पड़ें। हम छोड़ चलें यह लोक तसी,लौकान्त विराजे क्षणमें जा। निज लोक हमारा वाला हो, शोकांत बने फिर हमको क्या॥ जागे मम दुर्लभ बोधि प्रभो, दुर्नय तम सत्वर टल जावे। बस ज्ञाता दृष्टा रह जाऊं, मद-मत्सर-मोह विनश जावे॥ चिर रक्षक धर्म हमारा हो, हो धर्म हमारा चिर साथी। जगमें न हमारा कोई था, हम भी न रहें जग के साथी॥ चरणों में आया हूँ प्रभुवर! शीतलता मुझको मिल जावे। मुर्काई ज्ञान-लता मेरी, निज अन्तर्वल से खिल जावे ॥ सोचा करता हूँ भोगों से, बुझ जावेगी इच्छा ज्वाला । परिणाम निकलता है लेकिन, मानों पावक में घी डाला। तेरे चरणों की पूजा से, इन्द्रिय सुख की ही अभिलाषा। अबतक ही समझनपायाप्रभु! सच्चे सुखकी भी परिभाषा तुम तो अधिकारी हो प्रभुवर! जग में रहते जग से न्यारे; अतएव झुके तव चरणों में, जगके माणिक मोती सारे॥ स्यावाद मयी तेरी वाणी, शुभनय के झरने भरते हैं। .