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पाठ
आन ।
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होऊँ नहीं कभी में द्रोह न मेरे गुणग्रहणका मान रहे निष्टिन पर जाने ॥ कोई चुरा करो या जन्दा लक्ष्मी जाने या जाने | लाखो वर्षो तक जीऊ या मृत्यु आज ही ना जाने ॥ अथवा कोई का ही भय या लालच देने जाते। तो भी न्याय-नागने मेरा कभी न पत्र ठिगने पान ॥ होकर गुजमे मग्न न फुले दुप कमी न सर्व नदी रममान भगन असे नहारे ॥ रहे अटल-अप निरंतर यह मन इतर वन जाने । एटवियोग-जनिष्टयोगमे सहन-शीलता दिलाबै ॥ मुग्री व जीव जगत के कोई कभी न च बैर- पाप अभिमान छोड़ जग नित्य नये मन् गावै घर-वर चर्चा र धर्मकी दुष्कृत दुष्कर हो जाये। ज्ञान-चरित उन्नत कर अपना मनुज-जन्म-फल नव पात्रे ॥ ईति भीति व्यापै नहि जगने दृष्टि समयपर हुआ की । धर्मनिष्ठ होकर राजा भी न्याय प्रजाका किया करें ॥ रोग मरी दुभिंन न फैले प्रजा शातिसे जिया करें । परम अहिंसा-धर्म जगतमें फैल सर्व-हित किया करें ॥ फैले प्रेम परस्पर जगमें मोह दूर ही रहा करै । अप्रिय कटुक कठोर शब्द नहिं कोई मुखसे कहा करै ॥ बनकर सब 'युगवीर' हृदयसे देशोन्नति रत रहा करें। वस्तु स्वरूप विचार खुशीसे सब दुख-संकट सहा करै ॥
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