Book Title: Jain Pooja Path Sangraha
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 463
________________ जैन पूजा पाठ सग्रह यह सब मद मोह बढावनहारे, जिसकी दुर्गति दाता, इनसे ममत निवारो जियरा, जो चाहो सुख साता । मृत्यु कल्पद्रुम पाय सयाने, मोगो इच्छा जेती, समता धरकर मृत्यु करो तो, पावो सम्पत्ति तेती ॥ १५॥ चौमाराधन सहित प्राण तज, तो था पदवी पावो, हरि प्रतिहरि चक्रो तीर्थेश्वर, स्वर्गमुक्ति में जावो । मृत्युकल्पद्रुम सम नहिं दाता, तीनो लोक मझारे, ताकी पाय कलेश करो मत, जन्म जवाहर हारे || १६ ॥ इस तन मे क्या राचे जियरा, दिन दिन जीरन हो है, तेजति बल नित्य घटत है, था सम अथिर सु को है । पाचो इन्द्री शिथिल भई अब, स्वास शुद्ध नहिं आवै, तापर भी ममता नहि छोडे, समता उर नहि लावै ॥ १७ ॥ मृत्युराज उपकारी जियको तनस तोहि छुड़ावै, नातर या तन बन्दीगृह में, परयो परयो बिललावै । पुद्रन के परमाणु मिलके, पिण्डरूपतन भासी, याही मूरत मैं अमूरतो, ज्ञानजोति गुणवासी || १८ || रोगशोक आदिक जो वेदन, ते सब पुद्गल लारे, में तो चेतन व्याधि विना नित, है सो भाव हमारे । या तनस इस क्षेत्रसम्बन्धी, कारन जान बन्यो है, खान-पान दे थाको पोष्यो, जब सम भाव उन्यो है ॥ १६ ॥ मिथ्यादर्शन आत्मज्ञान बिन, यह तन अपनो मायो, इन्द्री भोग गिने सुख मैंने जापो नाहिं पिछान्यो । तन विनशनते नाश जानि निज, यह अथान दुखदाई, कुटुम्ब आदि को अपनी जान्यो, भूल अनादि छाई ||२०|| अब निज भेट् जथारथ समभयो, मैं हूं ज्योतिस्वरुपी, उपजे विनसे सो यह पुद्गल, जान्यो इष्ट अनिष्ट जेते सुख-दुख हैं, सो मैं जब अपनी रूप विचारों, तब वे याको रूपो । सब पुद्गल लागेँ, सब दुख भागें ॥ २२ ॥ ४४७

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