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पार्श्वनाथ की आरती
रचयिता-जियालाल जैन जय पारस देवा प्रभु जय पारस देवा । सुर नर मुनि जन तव चरनन को करते नित सेवा ॥ टेक पौष वदो ग्यारसी, काशी मे आनन्द अति भारी । अश्वसेन घर वामा के उर लोनो अवतारी ॥ जय० ॥ १ ॥ श्याम वरण नव हाथ काय पग उरग लखन सोहै । सुरकृत अति अनुपम पट भूषण सबका मन मोहै ॥ जय० ॥ २॥ जलते देख नाग नागिनी को पच नवकार दिया। हरा कमठ का मान ज्ञान का भानु प्रकाश किया ॥ जय० ॥ ३ ॥ मात-पिता तुम स्वामो मेरे आश करूं किसकी। तुम बिन दूजा और न कोई शरण गहूँ जिसकी ॥ जय० ॥ ४ ॥ तुम परमातम तुम अध्यातम तुम अन्तर्यामी । स्वर्ग मोक्ष पदवी के दाता त्रिभुवन के स्वामी ॥ जय० ॥ ५॥ दीनबन्धु दुखहरण जिनेश्वर तुम ही हो मेरे । दो शिवपुर का वास दास हम द्वार खड़े तेरे ॥ जय० ॥ ६ ॥ विषय विकार मिटाओ मन का अर्ज सुनो दाता। 'जियालाल' कर जोड प्रभु के चरणो चित लाता ॥ जय० ॥ ७ ॥
जय० ॥४॥