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बन पूजा पाठ सद
४.३
भावना बारह सदा माऊँ, भाव निर्मल होत है। में व्रत जु बारह सदा चाहूँ, त्याग भाव उद्योत हैं ।। प्रतिमा दिगम्बर सदा चाहूँ, ध्यान आसन सोहना । वसुफर्म तें मैं छुटा चाहूँ, शिव लहूँ जहं मोहना ॥ ६ ॥ में साधुजन को सग चाहूँ, प्रीति तिनही सौ करो। मैं पर्व के उपवास चाहूँ, सब भारम्भे परिहौं । दन दुग पामफाल माही, कुल प्रावक में लहो । अग महायन थरि सकौ नाही, निवल तन मैने गहो ॥ ७ ॥ आराधना उत्तम सदा चाहूँ, गुनो जिनरायजी । तुम कृपानाय अनाय 'द्यानत, दया करना नाथजी ।। बमुफर्म नाम विकाग ज्ञान, प्रकाग मोको कीजिये । गार गुगनि गमन समाधिमरण, सुभक्ति चरणन दीजिए॥८॥
मरण भय मानास प्राणों का नियोग हो जाना दी तो मरण है। पाच सन्दिप, तीन यल, ए भायु और एक सासोच्छवाग इनका पियोग होते ही मरण होता है। परन्तु पद समापनात, निरयोद्यत और मानस्वरूपी अपने को निन्तयन करता है। एक चेतना दो उमका प्राण है। तीन फाल में उसका पियोग नहीं होता। अतपेतनामयो हानात्मा के ध्यान से उसे मरण का भी मय पदी होता। इस प्रकार मात मयों में से यह किमी प्रकार भय नहीं करता। अतः गम्यष्टि पूर्णतया निर्भय है।
-'पर्णी पाणी' से